दीवाली के जले दियों की किरन किरन में तुम प्रतिबिम्बित
रंग तुम्हारी अँगड़ाई से पाकर के सजती है होली
तुम तो तुम हो तुलनाओं के लिये नहीं है कुछ भी संभव
कचनारों में चैरी फूलों में, चम्पा में आभा तुमसे
घटा साँवरी,पल सिन्दूरी, खिली धूप का उजियारापन
अपना भाग्य सराहा करते पाकर के छायायें तुमसे
उगे दिवस की वाणी हो या हो थक कर बैठी पगडंडी
जब भी बोली शब्द कोई तो नाम तुम्हारा ही बस बोली
फ़िसली हुई पान के पत्तों की नोकों से जल की बूँदें
करती हैं जिस पल प्रतिमा के चरणों का जाकर प्रक्षालन
उस पल मन की साधें सहसा घुल जाया करतीं रोली में
और भावनायें हो जातीं कल्पित तुमको कर के चन्दन
अविश्वास का पल हो चाहे या दृढ़ गहरी हुई आस्था
अर्पित तुमको भरी आँजुरी, करे अपेक्षा रीती झोली
आवश्क यह नहीं सदा ही खिलें डालियों पर गुलमोहर
आवश्यक यह नहीं हवा के झोंके सदा गंध ही लाये
यह भी निश्चित नहीं साधना पा जाये हर बार अभीप्सित
यह भी तय कब रहा अधर पर गीत प्रीत के ही आ पाय
लेकिन इतना तय है प्रियतम, जब भी रजनी थपके पलकें
तब तब स्वप्न तुम्हारे ही बस रचें नयन में आ राँगोली
2 comments:
सौन्दर्यपूर्ण कोमल रचना..
वाह।
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