पुस्तकों के पलटते हुये पृष्ठ हम
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प्यार के गीत को ढूँढ़ते रह गये
भावना के बुने अक्षरों में ढले
शब्द बोले बिना हों जिसे कह गये
जानते खोज होगी निरर्थक यहाँ
कोई अनुभूतियाँ ढाल पाता नहीं
चाहतों में उलझ कर सतह पर रहा
डूब गहराईयाँ कोई पाता नहीं
तालियों कीअपेक्षा में बन्दी हुई
भावना होंठ की कोर छूती नहीं
सिर्फ़ नक्कारखाना बनीं महफ़िलें
मौन पीते हुये बैठ तूती रही
पीढियों से लगाई हुई आस के
जितने सम्बन्ध थे, वे सभी ढह गये
छन्द से नित्य बढ़ती रहीं दूरियाँ
शब्द की,भाव की और फ़िर अर्थ की
सरगमों की कतारें भटकती रही
पर दिशा एक भी तो नहीं पा सकीं
आस पंचम पे नजरें टिकाये रही
सीढियाँ छू नहीं पाई आरोह की
कोर पर से फ़िसलती रही पृष्ठ की
दृष्टि पल के लिये हाशिये न टँकी
शब्द अध्याय की बंदिशों में बँधे
एक के बाद इक टूट कर बह गये
जो रहे सामने वे उच्छृंखल रहे
कोई अनुशासनों के गले ना लगा
कोई परिचय की गलियों में आया नहीं
नाम चेहरे पे चिपका हुआ रह गया
शब्द के झुंड थे, स्वर बहा ना सके
ठोकरें खाते खाते गिरे भूमि पर
और दुहराई फ़िर से कहानी यही
दूसरे पृष्ठ ने खुद ही खुद झूम कर
जोकि अनुभूति की मौन पीड़ाओं को
बन्द अव्यक्तता में करे रह गये
चाँद खुश्बू नदी पेड़ सारंगियाँ
तारकी -नभ तले जुगनुओं की चमक
अरुणिमा भोर की लालिमा सांझ की
अल्पना में ढला आ क्षितिज पर धनक
वादियाँ,नाव,कोयल,मयूरी हवा
गंध पीकर विचरती हुईं बदलियाँ
प्यार के गीत में ढल ना पाये तनिक
फूल,कलियाँ,मधुप,चाँद और तितलियाँ
अर्थ सारे गँवा शब्द आ सामने
एक परछाईं का चित्र बन रह गए
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राकेश खंडेलवाललिखी गज़ल गीतों ने जब छन्दों की भाषामें
नये पृष्ठ जुड़ गये कई मन की अभिलाषा में
2 comments:
अपने अर्थ खो चुके शब्द अपने आप को परछाईयों में ढूढ़ते हैं।
सुंदर भाव
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