झालरी कोई हवा की लग रहा कुछ कह रही है

कल्पना के चित्र पर ज्यों पड़ गई इंचों बरफ सी
रह गईं आतुर निगाहें एक अनचीन्हे दरस की
फिर किरण की डोर पकडे बादलों के झुण्ड उमड़े
कसमसाने लग गईं बाहें कसक लेकर परस की
 
शून्य में घुलते क्षितिज की रेख पर से आ फिसलती
झालरी कोई हवा की लग रहा कुछ कह रही है
 
आ रही लगता कही से कोई स्वर लहरी उमड़ कर
किन्तु सुनने की सभी ही कोशिशें असमर्थ लगतीं
दृष्टि की धुँधलाहटों से जागती झुंझलाहटों मे
कोई भी तस्वीर खाकों से परे अव्यक्त लगती
 
उम्र की पगली भिखारिन, साँस का थामे कटोरा
धड़कनों के द्वार पर बस झिड़कियाँ ही सह रही है
 
खींचती है कोई प्रतिध्वनि उद्गमों के छोर पर से
व्योम के वातायनों में कोई रखता नाम लिख कर
मौसमों की टोलियों को पंथ का निर्देश देता
कोई हँसता है हथेली में नई फिर राह भर कर
 
लड़खड़ाते पांव लेकर मानचित्रों में भटकती
प्राप्ति की हर साध ढलती सांझ के सँग ढह रही है
 
यूँ लगे,हैं फ़ड़फ़ड़ाते पृष्ठ कुछ खुलकर विगत के
बह गये इतिहास बन कर शब्द पर सारे लिखे ही
ढेरियां हैं मंडियों में सब पुरानी याद वाली
और हर सम्बन्ध का बर्तन रहा है बिन बिके ही
 
उंगलियों पर गिनतियों के अंक की सीमाओं में बँध
याद की दुल्हन दिवस की पालकी में रह रही है

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

उम्र की पगली भिखारिन, साँस का थामे कटोरा
धड़कनों के द्वार पर बस झिड़कियाँ ही सह रही है

अन्दर तक हिलाती, कालजयी पंक्तियाँ..

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