नैन की बीनाईयों पर धूल की परतें जमें जब
बादलों के चन्द टुकड़े केश में आकर घुलें जब
हाथ, शाखा इक तराशी का न पल भर हाथ छोड़ें
कोई रह रह भूलता सा याद में आने लगे जब
तब सुनो, यह मौन शब्दों में समय बतला रहा है
प्रीत की कविता नहीं अब नीति के कुछ गीत गाओ
गाओ वह जो एकतारे से कहे मीरा दिवानी
गाओ वह जो कुंज में वृन्दावनी हो सांझ गाये
छेड़ दो वह रागिनी जो सूर के स्वर में घुली है
गाऒ वह सुन कर जिसे खुद रागिनी भी गुनगुनाये
और यदि अक्षम तुम्हारा स्वर न गाने में सफ़ल हो
तो किनारे पर खड़े हो,धार के सपने सजाओ
प्रीत की अनुभूतियों को और कितने शब्द दोगे
और कितने दिन सपन के बीज बो निज को छलोगे
पीटते कब तक रहोगे जा चुके पग की लकीरें
कब तलक इक वृत्त में तुम बन्द कर पलकें चलोगे
ज़िन्दगी के पंथ के इस आखिरी विश्राम-स्थल पर
कुछ नई अभिव्यक्तियों की भूमिकायें अब बनाओ
हो गया ओझल नजर से उस दिवस में खोये क्यों तुम
शाख को क्या देखते हो, हो चुके नि:शेष विद्रुम
एक भ्रम की हो गईं धुन्धली घनी परछाईयों में
और कितनी देर तक तुम हो रहोगे इस तरह गुम
अब नये इक साज के निर्माण का आधार बन कर
सरगमों को इक नया ध्याय दे देकर सजाऒ
1 comment:
शब्द जो भी समय माँगे,
हो वही व्यवहार कवि का।
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