यह मुझको अनुमान नहीं था

सपनों की पगडंडी पर बस एक बार देखा था तुमको
बस जायेगा चित्र तुम्हारा आंखों में, अनुमान नहीं था
 
जीवन वन में रहा विचरता मर्यादा की ओढ़ दुशाला
संस्क्रुतियों के दीप जला कर किया पंथ में शुभ्र उजाला
गुरुकुल के सिद्धांत ईश का वचन मान कर शीष चढ़ाये
लेकर कच की परम्परायें, सम्बन्धों का अर्थ निकाला
 
लेकिन बरसों के प्रतिपादित नियम, निमिष में ढह जाते हैं
पुष्प शरों की सीमा कितनी है ये मुझको ज्ञान नहीं था
 
नारद का प्रण, तप की गरिमा, बन्धन सभी उम्र के टूटे
एक दॄश्य ही सत्य रह गया,बाकी चित्र हुए सब झूठे
याम,घड़ी पल, प्रहर समय की परिभाषायें शून्य हो गई
पलकें पत्थर हुईं,दृश्य जो एक बार बन गये, न टूटे
 
रात सौंप कर गई स्वप्न की जो इक स्वर्णिम रंगी चुनरिया
उसे छीन ले जाये ऐसा कोई भी दिनमान नहीं था
 
जाने क्यों परिचय अपना ही लगा अधूरा मुझको लगने
न जाने क्या आस संजोये, होंठ लगे रह रह कर कँपने
खुली हुई बाँहें अधीर हो उठीं पाश में भर लें कुछ तो
दूरी के मानक जितने थे सभी लगे मुट्ठी में बँधने
 
कब मरीचिकायें हो जाती हैं साकार इसे बतलाता
किसी कोश में किसी ग्रंथ में कोई भी प्रतिमान नहीं था

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

संभावनाओं से अधिक उनका प्रभाव..

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