चित्र बन रह जायें जब इतिहास

बोझ से लगने लगें सम्बन्ध के धागे जुड़े जब
आस हो कर के उपेक्षित द्वार से खाली मुड़े जब
कैद में बन्दी अपेक्षा की रहें सद्भावनायें
स्वार्थ के पाखी बना कर झुंड अम्बर में उड़ें जब
 
 
तब सुनिश्चित संस्कृतियों की हमारी वह धरोहर
जो विरासत में मिली थी, खर्च सारी हो गई है
 
 
छू न पायें याद की दहलीज को जब वे कहानी
मुद्रिकायें भी रहा करती रहीं जिनमें निशानी
अनकहे सन्देश लेकर थीं बहा करती हवायें
पास आ अनुभूतियों के रुत हुआ करती सुहानी
 
 
जान लेना तब मुलम्मों से भरी यह चन्द्रिका सी
पूर्णिमा के शब्द को भी अर्थ नूतन दे गई है
 
 
चित्र बन रह जायें जब इतिहास के सब स्वर्ण पन्ने
अर्थ की अनुभूतियों से ध्यान लग जाये बिछड़ने
मूल्य की भारी कसौटी हो परखती भावना को
सावनों को देख पत्ते वृक्ष से लग जायें झड़ने
 
 
सौंप जो मिट्टी गई थी होंठ को भाषायें कोमल
आज अपनी अस्मिता खोकर अनामिक हो गई है
 
 
शब्द कोशों से उधारी माँगती हो बात अपने
अर्थ को,हर व्याख्याके के पृष्ठ लगती हो पलटने
उलझनों के चक्रच्यूहों में घिरी संवेदना के
देख कर अपनी दशायें अश्रु ही रह पायें झरने
 
 
जान लेना तब हमारी उम्र की उपलब्धियों को
आज की पीढ़ी उठा ले ताक पर जा धर गई है

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

संग उड़ाने भर सकते हों,
बंधन हो तो ऐसा ही हो।

Udan Tashtari said...

जान लेना तब मुलम्मों से भरी यह चन्द्रिका सी
पूर्णिमा के शब्द को भी अर्थ नूतन दे गई है

-बहुत सुन्दर!!!

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