ज़िन्दगी है रेशमी साड़ी

ज़िन्दगी है रेशमी साड़ी जड़ी इक चौखटे ,में
बुनकरों का ध्यान जिससे एक दम ही हट गया है
पीर के अनुभव सभी हैं बस अधूरी बूटियों से
रूठ कर जिनसे कशीदे का सिरा हर कट गया है

है महाजन सांस का लेकर बही द्वारे पुकारे
और मन ये सोचता है किस तरह नजरें छुपाये
आँख का आँसू निरन्तर चाहता है हो प्रकाशित
शब्द की ये चाहना है गीत कोई नव सजाये
गीत मन के सिन्धु से जो रोज उमड़े हैं लहर बन
आज ऊपत आ नहीं पाते कहीं पर रुक गये हैं
भावनाओं के हठीले देवदारों के सघन वन
दण्डवत भूशायी हो कर यों पड़े ज्यों चुक गये हैं

दर्द के इक कुंड में जलता हुआ हर स्वप्न   चाहे
कोई आकर सामने स्वाहा स्वधा के मंत्र गाये
पर न जाने यज्ञ के इस कुंड से जो उठ रहा था
हो हविष नभ, को शुंआ वो लग रहा है छंट गया है

धड़कनें बन कर रकम, लिक्खी हुईं सारी , बकाया
रह गईं जो शेष उनको नाम से जोड़ा गया है
एक जो अवसाद में उलास के टांके लगाता
रेशमी धागा, निरन्तर सूत कर तोड़ा गया है
नीलकंठी कामनायें विल्वपत्रों की प्रतीक्षित
पर सजाया है उन्हें आकर धतूरे आक ने ही
राजगद्दी ने जिन्हें वनवास खुद ही दे दिया हो
हो सके अभिषेक उनके, बस उमड़ती खाक से ही

कोस बिख्री सांस के अक्षम हुए लम्बाई नापें
साढ़साती घूम कर फिर आई कितनी बार मापें
उंगलियों पर आंकड़ों का अंक जितनी बार जोड़ा
एक केवल शून्य हासिल, और सब कुछ घट  गया है

कल्पना के पाखियों के पर निकलने से प्रथम ही
कैद करने लग गया सय्याद से दिन जाल लेकर
चाँद के तट तक पहुँचने की उमंगें लड़खड़ाती
ले गई है सांझ वापस, रात की हर नाव खे कर
खूँटिया दीवाल पर नभ की जड़ी थीं जगमगाती
शिल्पियों ने फिर अमावस के, पलस्तर फेर डाला
यामिनी के राज्य ने षड़यंत्र रच कर भोर के सँग
पूर्व की गठरी बँधी में से चुरा डाला उजाला

आस पल पल जोड़ कर संचित करें कुछ आज अपना
आँजने लगती पलक  की कोर पर ला कोई सपना
किन्तु मायावी समय के सूत्र की पेचीदगी में
घिर, रहा जो पास में था, आज सारा बँट गया है

4 comments:

Shardula said...

अद्भुत! अद्वितीय!
हर बंद एक दर्शन समेटे!
फ़िर फ़िर पढ़ना होगा इस कविता को!
सादर आभार आपका

प्रवीण पाण्डेय said...

दर्शन को सरल माध्यम से कह देने में आपका कोई सानी नहीं।

Shardula said...

ज़िन्दगी है रेशमी साड़ी जड़ी इक चौखटे ,में
बुनकरों का ध्यान जिससे एक दम ही हट गया है --- इतना सुन्दर लिखने का कोई हक़ नहीं आपको कि पढ़ के सच में दर्द होने लगे!!
पीर के अनुभव सभी हैं बस अधूरी बूटियों से --- उफ्फ्फ्फ़... अद्भुत !
रूठ कर जिनसे कशीदे का सिरा हर कट गया है --- ये एक ऐसा चित्रण जो बिरले ही देखने को मिलता है. आपको इसमें बनारस दिखा होगा मुझे कबीर दिखे! और सच कहूँ तो हम सब ही हैं इस बंद में...अपनी नितांत प्रिय बूटियों को काढते हुए रुके से हाथ ... हम सब के हैं.

है महाजन सांस का लेकर बही द्वारे पुकारे
और मन ये सोचता है किस तरह नजरें छुपाये
आँख का आँसू निरन्तर चाहता है हो प्रकाशित
शब्द की ये चाहना है गीत कोई नव सजाये --- बहुत सुंदर, पर आप ही की कलम से पहले भी देखे हुए ये बिम्ब!
गीत मन के सिन्धु से जो रोज उमड़े हैं लहर बन
आज ऊपत आ नहीं पाते कहीं पर रुक गये हैं -- 'ऊपर' कर लीजिये इसको :)
भावनाओं के हठीले देवदारों के सघन वन ---- इतना सुन्दर!!
दण्डवत भूशायी हो कर यों पड़े ज्यों चुक गये हैं ---उफ्फ्फ!

दर्द के इक कुंड में जलता हुआ हर स्वप्न चाहे
कोई आकर सामने स्वाहा स्वधा के मंत्र गाये ---- वाह! क्या कहूँ!
पर न जाने यज्ञ के इस कुंड से जो उठ रहा था
हो हविष नभ, को शुंआ वो लग रहा है छंट गया है --'धुंआ' कर लीजिएगा इसको :)

धड़कनें बन कर रकम, लिक्खी हुईं सारी , बकाया
रह गईं जो शेष उनको नाम से जोड़ा गया है
एक जो अवसाद में उलास के टांके लगाता -- 'उल्लास' कर लीजियेगा. मुझे पता है आइन्स्टाइन अगर स्पेलिंग मिस्टेक देखता तो E=mc2 कौन लिखता :)...फ़िर भी :)
रेशमी धागा, निरन्तर सूत कर तोड़ा गया है ---- बहुत ही सुन्दर!
नीलकंठी कामनायें विल्वपत्रों की प्रतीक्षित --- ये अद्भुत! इतना अच्छा न लिखें की नज़र ही लग जाए!
पर सजाया है उन्हें आकर धतूरे आक ने ही --- तो क्या बुरा है, नीलकंठ को आक धतूरे से भी संतुष्ट होना चाहिए :)
राजगद्दी ने जिन्हें वनवास खुद ही दे दिया हो ---- बहुत सुन्दर!
हो सके अभिषेक उनके, बस उमड़ती खाक से ही---- हाय!

कोस बिख्री सांस के अक्षम हुए लम्बाई नापें --- दया करो गुरुदेव ! ये क्या है? :):) बिखरी? :)
साढ़साती घूम कर फिर आई कितनी बार मापें --- इतना सुन्दर न लिखें !
उंगलियों पर आंकड़ों का अंक जितनी बार जोड़ा
एक केवल शून्य हासिल, और सब कुछ घट गया है

कल्पना के पाखियों के पर निकलने से प्रथम ही
कैद करने लग गया सय्याद से दिन जाल लेकर
चाँद के तट तक पहुँचने की उमंगें लड़खड़ाती
ले गई है सांझ वापस, रात की हर नाव खे कर ---- ओह! बहुत नाज़ुक!
खूँटिया दीवाल पर नभ की जड़ी थीं जगमगाती
शिल्पियों ने फिर अमावस के, पलस्तर फेर डाला ---- ये अनुपम, एकदम नया प्रयोग! बहुत सुन्दर!
यामिनी के राज्य ने षड़यंत्र रच कर भोर के सँग
पूर्व की गठरी बँधी में से चुरा डाला उजाला

आस पल पल जोड़ कर संचित करें कुछ आज अपना
आँजने लगती पलक की कोर पर ला कोई सपना
किन्तु मायावी समय के सूत्र की पेचीदगी में
घिर, रहा जो पास में था, आज सारा बँट गया है --- आपका कोश अक्षय है गुरुदेव! थोड़ा आशीष हमें भी दें! आपकी दी हुई कलम साईट पे गुम गई है. अब तक वेल्डिंग/ब्लास्टिंग के तेज में सोना हो गई होगी:) नई कलम भिजवायें :)
सादर प्रणाम!

Udan Tashtari said...

रेशमी धागा, निरन्तर सूत कर तोड़ा गया है
नीलकंठी कामनायें विल्वपत्रों की प्रतीक्षित
पर सजाया है उन्हें आकर धतूरे आक ने ही
राजगद्दी ने जिन्हें वनवास खुद ही दे दिया हो


-अद्भुत!!! गज़ब!!....

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