रूढ़ियों से बँधी सोच को दे रहा
सोच के कुछ नये आज आयाम मैं
चेतना में नये बोध के बीज ले
बो रहा हूँ नई भोर में शाम में
जो डगर ने सजा चिह्न पथ में रखे
मैने उनका किया है नहीं अनुसरण
मैने खोजीं सदा ही दिशायें नई
मंज़िलों के पथों की नई व्याकरण
बादलों की बना तूलिका खींचता
चित्र मैं कैनवस इस गगन को बना
लीक को छोड़कर साथ मेरे चले
मैं हवा को सिखाता नया आचरण
नाम विश्लेष कर ढूँढ़ता अर्थ वे
जो छिपे हैं हुये नाम के नाम में
मैने कागज़ उठा ताक पर रख दिये
गीत लिखता हूँ मैं काल के भाल पर
सांस की सरगमें नृत्य करती सदा
मेरी धड़कन की छेड़ी हुई ताल पर
रात मसि बन रही लेखनी पर मेरी
रंह भरता दिवाकर मेरे शब्द में
छन्द शिल्पित करे अन्तरों को मेरे
चित्र खींचे अनागत स्वयं अक्ष में
मैं सजाने लगूँ जब भी पाथेय तब
आके गंतव्य बिछता रहा पांव में
दीप बन कर लड़ा मैं तिमिर से स्वयं
चाँदनी के भरोसे रहा हूँ नहीं
तीर होते विलय धार में जा जहाँ
मैं उम्नड़ कर बहा हूँ सदा ही वहीं
जो सितारे गगन से फ़िसल गिर पड़े
टाँकता हूँ क्षितिज के नये पृष्ठ पर
नैन की पार सीमाओं के जो रहा
मैं उसे खींच ला रख रहा दृष्टि पर
छाप अपनी सदा मैं रहा छोड़ता
पल,निमिष ,क्षण, घड़ी और हर याम में
6 comments:
दीप बन कर लड़ा मैं तिमिर से स्वयं
चाँदनी के भरोसे रहा हूँ नहीं
बहुत सुन्दर रचना....
शब्द में थाप हो,
कर्म में छाप हो।
मैं सजाने लगूँ जब भी पाथेय तब
आके गंतव्य बिछता रहा पांव में
बेहतरीन गीत
मैने कागज़ उठा ताक पर रख दिये
गीत लिखता हूँ मैं काल के भाल पर
सांस की सरगमें नृत्य करती सदा
मेरी धड़कन की छेड़ी हुई ताल पर
बेहतरीन सर।
सादर
बहुत खूबसूरत गीत ..
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