हम कुशल क्षेम के पत्र लिखते रहे

आंसुओं में घुली पीर पीते हुए
हम कुशल क्षेम के पत्र लिखते रहे
 
एक पल के लिए भी न सोचा कभी
हम व्यथाएं किसी और से जा कहें
सांत्वना के हवाओं को आवाज़ दें
फिर गले से लिपट साथ उनके बहें
होंठ ढूंढें कोई अश्रु पी जाए जो
कोई कान्धा,जहां शीश अपना रखें
कोई अनुग्रह,अपेक्षाओं के डोर से
थाम कर हाथ में साथ बांधे रखें
 
पंथ ही ध्येय माने हुए रख लिया
त्याग विश्रांति पल,नित्य चलते रहे
 
भीड़ मुस्कान के साथ चलती सदा
अश्रु रहता अकेला,यही कायदा
इसलिए ढांप कर अश्रु अपने रखे
था प्रकाशन का कोई नहीं फ़ायदा
कारुनी द्रष्टि जो एक पल हो गई
दूसरे पल विमुख ज्ञात हो जायेगी
और फिर से स्वयं को ही इतिहास के
अनवरत हो कहानी ये दुहारायेगी
 
मंडियों में उपेक्षित हुए शूल हैं
फूल ही सिर्फ दिन रात बिकते रहे

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मन के कुछ पीड़ा क्षेत्र, समय के कुछ चुभते पल, भावपूर्ण रचना।

Udan Tashtari said...

बहुत भावपूर्ण...

आज यू के निकलना है ४ हफ्ते के लिए.

BLOGPRAHARI said...
This comment has been removed by the author.
BLOGPRAHARI said...

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