वह अधर के कोर से फिसली हुई सी मुस्कराहट
वह दुपट्टे की सलों में छुप रही सी खिलखिलाहट
चित्र वे तिरते नयन में कुछ नए संभावना के
वह स्वरों की वीथि में अनजान सी कुछ थरथराहट
जानता हूँ दे रहे थे वह मुझे सन्देश कोई
किन्तु अब तक ढाई अक्षर मैं नहीं वे पढ़ सका हूँ
कह रही थी कुछ हवाओं की तरंगों में उलझ कर
साथ उड़ कर बून्द की चलती हुई इक गागरी के
थी लिखी उमड़ी घटाओं के परों पर भावना में
बात वह जो बज रही थी इक लहर पर ताल की के
एक उस अनबूझ सी मैं बात को समझा नहीं हूँ
यद्यपि वह सोचता हर रात चिन्तित हो जगा हूँ
था हिनाई बूटियों ने लिख दिया चुपके चिबुक पे
उंगलियों ने जो लिखा था कुन्तली बारादरी में
कंगनों ने खनखना कर रागिनी से कह दिया था
और था जो खुसपुसाता सांझ को आ बाखरी में
मैं उसी सन्देश के सन्दर्भ की डोरी पकड़ने
हाथ को फ़ैलाये अपने अलगनी पे जा टँगा हूँ
अर्थ को मैने तलाशा,पुस्तकों के पृष्ठ खोले
प्रश्न पूछे रात दिन सूरज किरण चन्दा विभा से
बादकों की पालकी वाले कहारों की गली में
पांखुरी पर ले रही अँगड़ाईयाँ चंचल हवा से
प्रश्न चिह्नों में उलझताधूँढ़ता उत्तर कहीं हो
मैं स्वयं को आप ही इक प्रश्न सा लगने लगा हूँ
6 comments:
bahut sundar prastuti
बहुत ही सुन्दर कविता।
बहुत सुन्दर,
आपसे अनुरोध है कि अपने लेखों में टैग का प्रयोग भी करें, टैग के महत्त्व को जानने के लिए आप मेरे ये लेख पढ़िए
अब कोई ब्लोगर नहीं लगायेगा गलत टैग !!!
पाठकों पर अत्याचार ना करें ब्लोगर
कितना सुन्दर!!!
मैं उसी सन्देश के सन्दर्भ की डोरी पकड़ने
हाथ को फ़ैलाये अपने अलगनी पे जा टँगा हूँ
-जबरदस्त!! वाह!
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