छा गई आ कहकहों पर एकदम गहरी उदासी
रंग की अनुभूतियां लेने लगीं पल पल उबासी
याद पर जो जम गईं थीं धूल की परतें हटीं सब
बढ़ गई दिन के पलों में कुछ अचानक बदहवासी
एक झौंका आ मुझे पुरबाईयों का छू गया तो
हो गया आतुर मेरा मन लौट कर वृन्दावनी हो
है सभी कुछ पास, लगता पास में कुछ भी नहीं है
कोई जो संतुष्टि का कारण रहे, बस वह नहीं है
नाम जिन पर है लिखा, संपत्तियों के ढेर भौतिक
किन्तु मन के कोष की अलमारियों में कुछ नहीं है
ढूँढ़ता मन एक मुट्ठी पंचवट की शान्ति छाया
तुष्टि न देती बनाई स्वर्ण लंका रावनी हो
भोर की पहली किरण के नूपुरों की झनझनाहट
आ जगा देती ह्रदय में इक अजब सी कसमसाहट
ताकती है दृष्टि पल पल द्वार को वातायनों को
लौट कर आये कहीं से एक परिचित सुगबुगाहट
चाह अपने आवरण को फ़ेंक कर तोड़ें मुखौटे
औ’ उड़ायें फ़ाग डूबें रंग में फिर फ़ागुनी हो
रोज ही लेकर अपेक्षायें यहाँ उगते सवेरे
हो खड़ा जाता महाजन वक्त का आ द्वार घेरे
एक पल ऐसा नहीं मिलता जिसे अपना बतायें
हों उजाले दोपहर के रात के या हों अंधेरे
नैन के आकाश पर घिरती नहीं आ कोई बदरी
चाह प्यासी है घनेरी छाँह कोई सावनी हो
चाहता मन दीप कोई सांझ, तुलसी पर जलाये
चाह है चौपाल पर कोई पुन: आल्हा सुनाये
चाह गूँजे धार पर फिर गीत मांझी के स्वरों में
चाह आ आलाव पर दरवेश कोई बैठ जाये
सोचता मन रुक गई बहती नदी के आ किनारे
दीप जिसमें जा सिराये, वो कहीं मन्दाकिनी हो
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10 comments:
चाह प्यासी है घनेरी छाँह कोई सावनी हो
बस यही उत्कण्ठा लिये जीवन बिता रहे हैं।
बहुत अच्छी प्रस्तुति ...आपके ब्लॉग की चर्चा कल के चर्चा मंच पर है
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना मंगलवार 23 -11-2010
को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण गीत !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सोचता मन रुक गई बहती नदी के आ किनारे
दीप जिसमें जा सिराये, वो कहीं मन्दाकिनी हो
बेहतरीन......मनोभावों को खूब प्रस्तुत किया.... बधाई
चाहता मन दीप कोई सांझ, तुलसी पर जलाये
चाह है चौपाल पर कोई पुन: आल्हा सुनाये
चाह गूँजे धार पर फिर गीत मांझी के स्वरों में
चाह आ आलाव पर दरवेश कोई बैठ जाये
वाह!
सुन्दर गीत!
>रोज ही लेकर अपेक्षायें यहाँ उगते सवेरे
>हो खड़ा जाता महाजन वक्त का आ द्वार घेरे
हमेशा की तरह अनूठे बिम्बों और अनुपम उपमाओं से सजा आप का यह गीत बहुत अच्छा लगा |
आप के ब्लौग पर चार सौ गीतों के पूर्ण होने की बधाई |
Quantity और Quality का इतना अच्छा सम्मिश्रण बिरले ही देखने को मिलता है
चाहता मन दीप कोई सांझ, तुलसी पर जलाये
चाह है चौपाल पर कोई पुन: आल्हा सुनाये
चाह गूँजे धार पर फिर गीत मांझी के स्वरों में
चाह आ आलाव पर दरवेश कोई बैठ जाये
ati-sundar...shabad nahi hain mere paas prashansa ke liye. lajwab!!
चाह आ आलाव पर दरवेश कोई बैठ जाये
..jiyo..waah!! bahut khoob!!
राकेश जी, गीत हमेशा की तरह लाज़वाब और सदाबहार..आपकी गीतों को कोई कितनी बार ही दुहराए हमेशा एक नयापन सा लगता है..एक सुंदर एहसास से ओतप्रोत भावपूर्ण गीत..प्रस्तुति के लिए बधाई..
आपको आपके चारसौंवे पोस्ट की भी हार्दिक बधाई..माँ शारदा की कृपादृष्टि आप पर ऐसे बनी रही और आप नित नये नये काव्य के रंगों से दुनिया को लाभान्वित करते रहे...साहित्यिक साधना एक बहुत बड़ी साधना है...आप जैसे महान रचनाकार को मेरा प्रणाम..
Extremely beautiful!
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