एक अगन सी रोम रोम में

तुम कुछ पल को मिले और फिर बने अपरिचित विलग हो गये
तब से जलने लगी निरन्तर एक अगन सी रोम रोम में

सुलग रहा अधरों पर मेरे स्पर्श एक पल का अधरों का
भुजपाशों में रह रह करके आलिंगन के घाव सिसकते
दॄष्टिपात वह प्रथम शूल सा गड़ा हुआ मेरे सीने में
काँप काँप जाता है तन मन उन निमिषों की यादें करते

ग्रसता है विरहा का राहू आशाओं का खिला चन्द्रमा
जब जब भी पूनम की निशि को निकला है वह ह्रदय व्योम में

आंखों में उमड़ी बदली में धुंधला गये चित्र सब सँवरे
ज्वालामुखियों के विस्फ़ोटों सी फूटीं मन में पीड़ायें
बरसी हुई सुधा की बून्दें सहसा हुईं हलाहल जैसे
कड़ी धूप मरुथल की होकर लगी छिटकने चन्द्र विभायें

दिन वनवासी हुए धधकते यज्ञ कुंड सी हुईं निशायें
आहुति होती है सपनों की एक एक हो रहे होम में

चढ़े हुए सूली पर वे पल जो बीते थे साथ तुम्हारे
बिखरे हैं हजार किरचों में चेहरे सब संचित अतीत के
प्रतिपादित कीं तुमने नूतन परिभाषायें भाव शब्द की
मैने जैसे सोचे न थे निकलेंगे यों अर्थ प्रीत के

अर्थ भावनाओं के जितने वर्णित थे मन की पुस्तक में
एक एक कर सन्मुख आये, आये पर ढल कर विलोम में

6 comments:

Shar said...

:(

Anamikaghatak said...

शब्द कठिन है पर भावपूर्ण है ........अतीव सुन्दर

प्रवीण पाण्डेय said...

विरह की पीड़ा का शाब्दिक पर्याय प्रस्तुत कर दिया आपकी कविता ने।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सुन्दर प्रस्तुति

विनोद कुमार पांडेय said...

चढ़े हुए सूली पर वे पल जो बीते थे साथ तुम्हारे
बिखरे हैं हजार किरचों में चेहरे सब संचित अतीत के
प्रतिपादित कीं तुमने नूतन परिभाषायें भाव शब्द की
मैने जैसे सोचे न थे निकलेंगे यों अर्थ प्रीत के

बढ़िया रचना...आभार

विनोद कुमार पांडेय said...

चढ़े हुए सूली पर वे पल जो बीते थे साथ तुम्हारे
बिखरे हैं हजार किरचों में चेहरे सब संचित अतीत के
प्रतिपादित कीं तुमने नूतन परिभाषायें भाव शब्द की
मैने जैसे सोचे न थे निकलेंगे यों अर्थ प्रीत के

बढ़िया रचना...आभार

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