एक वही है मेरी कविता, मेरी कल्पना मेरी प्रेरणा
जिसके चित्र नयन के परदे पर आ प्रतिपल लहराते हैं
इन्द्रधनुष की परछाईं में उसको प्रथम बार देखा था
शरद पूर्णिमा की रंगत में गढ़ी हुई प्रतिमा चन्दन की
उसके अधरों के कंपन से जागे हुए सुरों को छूकर
प्राण पा गई ध्वनि, गूँजी बन मंत्र अर्चना में वंदन की
अनुरागी सुधियों के मेरे कोष राजसी में वह संचित
उसका पाकर स्पर्श रत्न भी और रत्नमय हो जाते हैं
बासन्ती चुम्बन से सिहरी हुई कली की निद्रित पलकें
जब खुलती हैं तब उसके ही चित्र संवरते हैं पाटल पर
गंधों की बांसुरिया बजती तान उसी के तन से लेकर
और नाम उसका ही मिलता लिखा बहारों के आँचल पर
शतरूपी वह रोम रोम में संचारित है निशा दिवस में
तार ज़िन्दगी की वीणा के, जिससे झंकारॆं पाते है
जिसके कुन्तल लहराते ही रँगीं अजन्तायें अनगिनती
गढ़ जाता खजुराहो पाकर नयनों का केवल इक इंगित
जुड़े हुए कर जिसके बनते एक गोपुरम पूजाघर का
जिसकी छवि से हो जाते हैं ताजमहल हर युग में शिल्पित
मनमोहन वह हुई प्रवाहित सदा लेखनी पर आ आकर
और शब्द उसके प्रभाव से स्वत: गीत बनते जाते हैं
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5 comments:
गीत आपकी सांसो में बसते हैं..स्वतः तो ढलना ही है उन्हें.
बहुत खूब!!
मनमोहन वह हुई प्रवाहित सदा लेखनी पर आ आकर
और शब्द उसके प्रभाव से स्वत: गीत बनते जाते हैं सुंदर अतिसुन्दर बधाई
मनमोहन वह हुई प्रवाहित सदा लेखनी पर आ आकर
और शब्द उसके प्रभाव से स्वत: गीत बनते जाते हैं
बहुत सुंदर ..
कविता मन के भावों को शब्द बना उडेलती जाती है लेखनी में और मैं बहने लगता हूँ ।
बहुत खूब राकेश जी...कविता के होने का इतना प्रभावशाली वर्णन....बेहद सुंदर गीत...आपके गीतों को केवल पढ़ता ही नही हूँ बल्कि उसे पढ़ने के बाद सोचता भी हूँ कितने सुंदर शब्द और वैसे ही बेहतरीन भाव...माँ शारदा की बहुत बड़ी कृपा है आप पर शब्द और भाव के सागर गीत सम्राट राकेश जी को मेरा नमन...प्रणाम
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