दॄष्टि तुम्हारी चूम गई थी आकर जहाँ नयन को मेरे
यह पागल मन अब भी अटका हुआ उम्र के उसी मोड़ पर
ताजमहल की परछाईं में बतियाता था मैं लहरों से
अधलेटा, सर टिका हथेली पे अपनी मैं अलसाया सा
गंध भरे बादल का टुकड़ा आया एक पास था मेरे
जैसे गीत हवा का गाया मौसम ने हो दुहराया सा
सुधियों को सम्मोहित करके साथ उड़ा ले गया कहीं पर
वह एकाग्रचित्तता की मेरी तन्द्रायें सभी तोड़ कर
संध्या की आँखों का सुरमा पिघल ढल गया था रंगों में
ढलते सूरज ने किरणों की कूची लेकर चित्र उकेरा
नीड़ लौटते पाखी ने जब छेड़ दिये थे सरगम के सुर
लेने लगा उबासी था जब पूरे दिन का थका सवेरा
जल्दी में था घर जाने की, इसीलिये ही दिन का सारथि
गया प्रतीची ले रथ अपना, चित्र तुम्हारा पास छोड़ कर
घुली हवाओं के झोंकों में ज्यों अनुभूति अजानी अद्भुत
वैसे चित्र तुम्हारा नयनों के पाटल पर बना अचानक
मिले नयन से नयन तरंगित हुई भावनाओं की डोरी
मन के पृष्ठों पर फिर सँवरे एक एक कर कई कथानक
होठों पर मेरे आ उतरी छुअन किसी नन्ही पांखुर की
या फिर रखा हवा ने कोई बादल का टुकड़ा निचोड़ कर.
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नव वर्ष २०२४
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7 comments:
फिर से बेहतरीन....ज़्यादातर कविताओं में मन डूब जाता है वैसी ही एक प्रस्तुति आज भी..
राकेश जी अपने इस प्रशंसक का प्रणाम स्वीकारें...एक बार फिर से कह रहा हूँ..बहुत ही बढ़िया लिखते है आप
:)
बेहतरीन पंक्तियाँ
गीत कलश एक आदत बनता जा रहा है. एक एक बून्द भरा पूरा आनन्द ( सच्ची कहें ..तो नशा..) दे जाती है.
बने रहें वे पीने वाले,बनी रहे यह मधुशाला.
Adbhut!adbhut!adbhut!!
क्या लिखूं इस गीत के बारे में! शब्दों में ऐसी सामर्थ्य नहीं पाता। इसे गुनगुनाने में जो अनुभूति हुई उसे भी आपके ही शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है:-
'होठों पर मेरे आ उतरी छुअन किसी नन्ही पाँखुर की,
या फिर रखा हवा ने कोई बादल का तुकड़ा निचोड़ कर'
अनुपम! अद्वितीय! अद्भुत!
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