ओ सुलोचने छुआ नहीं है जिन्हें तेरे अधरों की स्मित ने
तू ही बतला उन शब्दों को गीतों में किस तरह सजाउँ
तेरे एक कंठ के स्वर से मिला जन्म है रागिनियों को
तेरी वाणी की थिरकन से सरगम ने आ आंखें खोलीं
तेरे दॄष्टि पात से उभरी भोर नई अँगड़ाई लेकर
तेरे कुन्तल लहराये तो रजनी की उतरी आ डोली
पलको के पीछे अब तक जो लेकिन सोई हुई सांझ है
नीरजनयने तू ही बतला कैसे उसका रूप दिखाऊँ
उठे हाथ अलसाये तेरे लहरें लगीं काँपने तट पर
पथरज ने पग चूमे तेरे, द्वारे पर बन गई अल्पना
आँचल की लहराती कूची ने रँग दिया क्षितिज रंगों में
त्रिवली की थिरकन से पाने लगती है विस्तार कल्पना
एक एक कण बँधा प्रकॄति का तेरे नयनों की चितवन से
कला साधिके ! सोच रहा हूँ उसको क्या दे नाम बुलाऊँ
तेरे अधर खुले तो पाया अर्थ नया कुछ गाथाओं ने
तेरी अर्ध निमीलित पलकें निशा दिवस को किये नियंत्रित
तेरे हाथों की मेंहदी के बूटों ने जब छेड़ा इनको
कंगन ने सारंगी बनकर नूतन राग किये अन्वेषित
लेकिन जो इक परछाईं के साये में घुल कर ही रह ली
ओ शतरूपे बतला कैसे उस प्रतिमा पर फूल चढ़ाऊँ
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9 comments:
पलको के पीछे अब तक जो लेकिन सोई हुई सांझ है
नीरजनयने तू ही बतला कैसे उसका रूप दिखाऊँ
बहुत खूब राकेश भाई। नीरजनयने - अच्छा प्रयोग।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत ही कोमल, लालित्य भरा गीत है। ऐसा लगता है जैसे अपने ही हृदय की भावनाओं को किसी ने शब्द दे दिये हों।आपने जिस तरह से संवेदनाओं को मुखरित किया है वो अद्भुत है।
उठे हाथ अलसाये तेरे लहरें लगीं काँपने तट पर
पथरज ने पग चूमे तेरे, द्वारे पर बन गई अल्पना
राकेश जी आपके गीतों की प्रशंसा करने के लिये मेरे शब्दको
श में शब्द नहीं बचे हैं । इसी प्रकार आत्मा के गीत लिखते रहें ।
पलको के पीछे अब तक जो लेकिन सोई हुई सांझ है
नीरजनयने तू ही बतला कैसे उसका रूप दिखाऊँ
soyi hui saanjh...kitni khuubsurat baat hai ye..
ओ सुलोचने छुआ नहीं है जिन्हें तेरे अधरों की स्मित ने
तू ही बतला उन शब्दों को गीतों में किस तरह सजाउँ
एक एक कण बँधा प्रकॄति का तेरे नयनों की चितवन से
कला साधिके ! सोच रहा हूँ उसको क्या दे नाम बुलाऊँ
kya baat hai..
लेकिन जो इक परछाईं के साये में घुल कर ही रह ली
ओ शतरूपे बतला कैसे उस प्रतिमा पर फूल चढ़ाऊँ
-जब पंकज जी के पास शब्द न बचे, तो हम तो अपनी झोली चैक ही न करें तो ठीक...बेहतरीन गीत भाई जी. :)
लेकिन जो इक परछाईं के साये में घुल कर ही रह ली
ओ शतरूपे बतला कैसे उस प्रतिमा पर फूल चढ़ाऊँ
लाजवाब गीत सुन्दर
अप्रतिम !! अद्वितीय !! मुग्धकारी !!
आपकी रचनाओं को पढ़ प्रशंशा हेतु शब्द संधान असंभव हो जाया करते हैं........
माता सतत आप पर यूँ ही अपनी कृपा बनाये रखें.....
आपके गीत इतने सहज और सुंदर होते हैं की क्या टिप्पणी लिखें, क्या हृदय में रख सीख बटोरें !
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"ओ सुलोचने छुआ नहीं है जिन्हें तेरे अधरों की स्मित ने
तू ही बतला उन शब्दों को गीतों में किस तरह सजाउँ"-- अच्छे से सजाईये :))
"पलको के पीछे अब तक जो लेकिन सोई हुई सांझ है" -- वाह!
"आँचल की लहराती कूची ने रँग दिया क्षितिज रंगों में"-- क्या बात है!
"तेरी अर्ध निमीलित पलकें निशा दिवस को किये नियंत्रित"--वाह!
"लेकिन जो इक परछाईं के साये में घुल कर ही रह ली
ओ शतरूपे बतला कैसे उस प्रतिमा पर फूल चढ़ाऊँ" --ये सबसे सुन्दर पंक्ति है इस गीत की और इस गीत का निचोड़ भी! यही नए गीतों की जननी भी है!
सादर शार्दुला, ३० जुलाई ०९
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