अब सम्बन्ध कलम से मेरा

सम्बन्धों के अनुबन्धों की लगता अवधि हो गई पूरी
करती हैं विच्छेद उंगलियां अब सम्बन्ध कलम से मेरा

बही भाव के निर्झर से नित, अविरल एक शब्द की धारा
होठों ने कर लिया आचमन और कंठ स्वर ने उच्चारा
अलंकरण आ गये सजाने, सांचे में शिल्पों ने ढाला
अनुप्रासों ने दर्पण अपना दिखा दिखा कर रूप संवारा

लेकिन इक विराम की बिन्दी लगता है अब रोके पथ को
लगा उमड़ने धीरे धीरे मन अम्बर पर घना अंधेरा

सन्दर्भों से उपमाओं के जो सम्बन्ध रहे वे टूटे
सर्ग व्याकरण के जितने थे, एक एक कर सारे रूठे
शब्दकोश ने अपनी संचित निधि से दी कुछ नहीं उधारी
और पात्र जिनमें हम अक्षर रख सकते थे, सारे फूटे

वाणी हुई निरक्षर, कोई वाक्य नहीं चढ़ता अधरों पर
मेरी गलियों में आकर अब मौन, लगाये बैठा डेरा

बजे भावना की शहनाई पर न सजे बारात छन्द की
खिले हुए फूलों को छूकर बदली उमड़े नहीं गन्ध की
तारों का कम्पन ढलता ही नहीं किसी सरगम के सुर में
कला हुई विस्मॄत जो सीखी, कभी अन्तरों के प्रबन्ध की

धब्बा एक बना स्याही की केवल कागज़ पर दिखता है
कूची लेकर आज शब्द का मैने जब भी चित्र चितेरा

5 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

सम्बन्धों के अनुबन्धों की लगता अवधि हो गई पूरी
करती हैं विच्छेद उंगलियां अब सम्बन्ध कलम से मेरा

wah ....behad khoobsurat

Prabhu Trivedi said...

Bahut dino ke baad, chhandbaddha
rachna padne ko mili, badhai... !!

Prabhu Trivedi
http://pranamyasahitya.blogspot.com

दिगम्बर नासवा said...

राकेश जी
इतना सुन्दर धाराप्रवाह गीत.......
मैंने तो पढ़ते हुवे भी इस गीत को ले में गुनगुनाते हुवे पढ़ा और पढता ही गया
लाजवाब

Dr. Amar Jyoti said...

हमेशा की तरह बेहद ख़ूबसूरत गीत। पर इतनी हताशा?

Shardula said...

Here the sign wave has touched a rare new negative peak!!

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