चाह तो है शब्द होठों पर स्वयं आ गीत गाये
स्वप्न आंखों में सजे तो हो मुदित वह गुनगुनाये
पॄष्ठ सुधियों के अधूरे, पुस्तकों में सज न पाते
उम्र बीती राग केवल एक, वंशी पर बजाते
हाथ जो ओढ़े हुए थे मांगने की एक मुद्रा
बांध कर मुट्ठी कहां संभव रहा कुछ भी उठाते
कर्ज का ले तेल बाती, एक मिट्टी का कटोरा
चाहता है गर्व से वह दीप बन कर जगमगाये
सावनों के बाद कब बहती नदी बरसात वाली
बिन तले की झोलियाँ, रहती रहीं हर बार खाली
मुद्रिकाओं से जुड़े संदेश गुम ही तो हुए हैं
प्रश्न अपने आप से मिलता नहीं होकर सवाली
ओस का कण धूप से मिलता गले तो सोचता है
है नियति उसकी, उमड़ती बन घटा नभ को सजाना
अर्थ तो अनुभूतियों के हैं रहे पल पल बदलते
इसलिये विश्वास अपने, आप को हैं आप छलते
मान्यताओं ने उगाये जिस दिशा में सूर्य अपने
हैं नहीं स्वीकारतीं उनमें दिवस के पत्र झरते
रात के फ़ंदे पिरोता, शाल तम का बुन रहा जो
उस प्रहर की कामना है धूप को वह पथ दिखाये
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7 comments:
कर्ज का ले तेल बाती, एक मिट्टी का कटोरा
चाहता है गर्व से वह दीप बन कर जगमगाये
वाह राकेश जी वाह...आप की कविता की प्रशंशा करना अपने तो बस की बात ही नहीं है...आप को नियमित पढता हूँ और बिना कुछ बोले मन ही मन प्रणाम करता हूँ और चल देता हूँ...अब क्या कहूँ..आप कहने लायक शब्द छोड़ते कहाँ हैं...जो कहते हैं उसके बारे में लिखूं ऐसे शब्द ही नहीं मिलते...वाह.
नीरज
बहुत ही उम्दा ।
हर शब्द इतना खुबसूरत ।
"पॄष्ठ सुधियों के अधूरे. ."
"हाथ जो ओढ़े . . ."
"कर्ज का ले तेल . . "
"सावनों के बाद . . .मिलता नहीं होकर सवाली"
"उस प्रहर की कामना . ."
क्या बचा कहने को कविराज !
अद्भुत !
कर्ज का ले तेल बाती, एक मिट्टी का कटोरा
चाहता है गर्व से वह दीप बन कर जगमगाये
क्या लिखते हैं आप ...तारीफ के लिये शब्द भी नहीं बचते...
अर्थ तो अनुभूतियों के हैं रहे पल पल बदलते
इसलिये विश्वास अपने, आप को हैं आप छलते
मान्यताओं ने उगाये जिस दिशा में सूर्य अपने
हैं नहीं स्वीकारतीं उनमें दिवस के पत्र झरते
sach bahut hi lajawab,sunder bhav
कर्ज का ले तेल बाती, एक मिट्टी का कटोरा
चाहता है गर्व से वह दीप बन कर जगमगाये
वाह आदरणीय राकेश जी वाह
मै इस पर यही कह सकता हू
आपके सब गीत - कविता हैं उजाले की किरण
आपके सब शब्द लाते हैं , अनूठा जागरण
आपके अक्षर सभी जलती मशालों की तरह
रौशनी इनकी वजह से है यहाँ पर सब जगह
जगमगाते हैं सितारे आपके विशवास पर पर
आप सूरज की तरह हो ,शब्द के आकाश पर
आप जैसा शब्द का साधक नहीं है दूसरा
है असंभव आप जैसी , शारदे की साधना
कर रहे हैं आज प्रेषित सब ह्रदय की भावना
दे रहे हैं आज सारे आपको शुभकामना
डा. उदय ’मणि’ कौशिक
http://mainsamayhun.blogspot.com
क्या कहूँ.निःशब्द हूँ....सिर्फ वाह ! वाह ! और वाह !!
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