एक दिवस जब तुम मुझसे थे अनजाने ही दूर हो गये
वह इक दिवस आज भी मेरी आंखों में है भरा भरा सा
वह इक दिवस ज़िन्दगी की पुस्तक का पन्ना फ़टा हुआ सा
जोड़ गुणा के समीकरण में से केवल वह घटा हुआ सा
रंग बिरंगे कनकौओं की आसमान में लगी भीड़ से
एक वही है पड़ा धरा पर बिना डोर के कटा हुआ सा
वह दिन देखा रथ पर चढ़ कर जाती थी अरण्य वैदेही
और दग्ध मन लिये विजेता लंका का था डरा डरा सा
वह दिन जब कुन्ती ने अपना लाड़ बहाया था पानी में
वह दिन हुए अजनबी पासे, जब इक चौसर पहचानी में
वह दिन पांव बढ़े थे आगे, जब खींची सीमा रेखा से
वह दिन बिके भाव जब मन के और बिके केवल हानी में
वह दिन अटका हुआ याद के दरवाजे को पकड़े ऐसे
जैसे एक नीर का कण हो पत्ते पर, पर झरा झरा सा
वह दिन अगर इबारत होता लिखी, सुनिश्चित उसे मिटाता
वह दिन भाव मात्र यदि होता, तो मैं उसे शब्द कर जाता
वह दिन लेकिन एक फूल के साथ रहे कांटे के जैसा
जितना चाहूँ उसे भुलाना उतना सीने में गहराता
वह दिन, एक अकेला पत्ता ज्यों पतझर की अँगनाई में
अटका हुआ शाख पर सबसे विलग हुआ पर हरा हरा सा
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...
15 comments:
SHABDATEET!!
वह दिन जब कुन्ती ने अपना लाड़ बहाया था पानी में
वह दिन हुए अजनबी पासे, जब इक चौसर पहचानी में
वह दिन पांव बढ़े थे आगे, जब खींची सीमा रेखा से
वह दिन बिके भाव जब मन के और बिके केवल हानी में
-अद्भुत!! डुबो ले गया एक एक बिम्ब..वाह!!
राकेश जी, मुखड़ा .. तो कमाल है .....
एक दिवस जब तुम मुझसे थे अनजाने ही दूर हो गये
वह इक दिवस आज भी मेरी आंखों में है भरा भरा सा
रिपुदमन
कितना सुंदर लिखा है राकेश जी।
एक दिवस जब तुम मुझसे थे अनजाने ही दूर हो गये
वह इक दिवस आज भी मेरी आंखों में है भरा भरा सा
बहुत सुंदर...
वह दिन अगर इबारत होता लिखी, सुनिश्चित उसे मिटाता
वह दिन भाव मात्र यदि होता, तो मैं उसे शब्द कर जाता
वह दिन लेकिन एक फूल के साथ रहे कांटे के जैसा
जितना चाहूँ उसे भुलाना उतना सीने में गहराता
क्या बात है...अतुलनीय...कैसे लिख केते हैं आप ऐसा?
एक दिवस जब तुमने खुद को
सबसे पीछे रखा चयन में
पकड अंगुली, दायें काँधे चढ
दिवस बसा वो आन नयन में !
सादर . . .
bahut sundar
वह दिन अटका हुआ याद के दरवाजे को पकड़े ऐसे
जैसे एक नीर का कण हो पत्ते पर, पर झरा झरा सा
निःशब्द सी-गुन रही हूँ-आभार
वह दिन अगर इबारत होता लिखी, सुनिश्चित उसे मिटाता
वह दिन भाव मात्र यदि होता, तो मैं उसे शब्द कर जाता
वह दिन लेकिन एक फूल के साथ रहे कांटे के जैसा
जितना चाहूँ उसे भुलाना उतना सीने में गहराता
वह दिन, एक अकेला पत्ता ज्यों पतझर की अँगनाई में
अटका हुआ शाख पर सबसे विलग हुआ पर हरा हरा सा
आँखों में कुछ धुँधलका सा आ गया इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद......!
राकेश जी अब आपकी रचनाओं पर टिपण्णी देने की क्षमता मुझमें नहीं रही...एक से बढ़ कर एक अद्भुत रचनाओं की प्रशंशा के लिए नए शब्द कहाँ से ले कर आऊं? बस पढता हूँ आँख मींचता हूँ और मन ही मन आप को नमन करता हूँ...वाह.
नीरज
टिप्पणी अश्रु कैसे लिख पायें
गीत पढें, आँखें भर जायें ?
कैसे स्निग्ध-चित्-भाव समेटें
द्वार तुम्हारे आ धर आयें ?
जब तुषार-कण कोई बावरा
पग धरे तुम्हरा अंगनाई में,
समझें कविवर नमन हमारा
लिखा भोर की तरुणाई में !
सादर नमन !!
ऐसी रचनाओं की प्रशंशा हेतु शब्द संधान असंभव हो जाते हैं.....क्या कहा जाय...
माता आप पर ऐसे ही अपनी करुणा लुटती रहें.....
जाने ऐसी उपमाएं आप कहाँ से लाते हैं. तारीफ़ करने को शब्द नहीं मिलते.
वह दिन अटका हुआ याद के दरवाजे को पकड़े ऐसे
जैसे एक नीर का कण हो पत्ते पर, पर झरा झरा सा
कितनी खूबसूरत पंक्तियाँ हैं...हम तो बस मोहित हो के रह जाते हैं.
jab bhi 13 comments hote hain na toh kuchh gadbad ho jaata hai !
yeh leejiye 14th comment:)
ek baat poochhne ka man hota hai hardam. Aaj Nagarjun ji ki kavita ke dwaara pochh leti hoon jis se daanT pite toh thoda udhar bhej doon:) Vaise aap uttar gol karne main toh ustaad hi hain:) aap bhi ek mahakaavy likh ke ghumaa hi denge :) phir bhi ---
"पर-पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थक कर औ ' चूर-चूर हो
अमल-धवलगिरि के शिखरों पर
... तुम कब तक सोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना !
रोया ... कि तुम रोए थे ? "
"वह दिन बिके भाव जब मन के और बिके केवल हानी में !"
Post a Comment