उस पल यादों के पाखी

पनघट के पथ से आवाज़ें देती है पायल मतवाली
जुगनू बरसाने लगती है, उलटी हुई गगन की थाली
कंदीलों से बँध उड़ते हैं आंखों के रतनारे सपने
बिना वज़ह छाने लगती है चेहरे पर रह रह कर लाली

और अधर बिन बात छुये ही पल पल लगे थरथराते हैं
उस पल यादों के पाखी मन अम्बर पर उड़ आ जाते हैं

सन्नाटे का राजमुकुट जब संध्या रख लेती मस्तक पर
अटके रहते कान नहीं जो होती द्वारे पर, दस्तक पर
माँग नहीं सूनी राहों की कोई भी पदरज सँवारती
और चाँदनी रह जाती है दर्पण में खुद को निहारती

एक दीप की कंपित लौ पर अनगिन साये मँडराते हैं
उस पल यादों के पाखी उड़ मन अंबर पर आ जाते हैं

रोशनदानों की झिरियों से झांका करे सितारा कोई
सेज बाँह की नहीं छोड़ती अलसाई अँगड़ाई सोई
खिड़की के पल्ले को पकड़े रहती है बीमार रोशनी
रुठी हुई हवा रहती है होकर गुमसुम और अनमनी

और देवता के घर के भी दरवाजे जब भिड़ जाते हैं
उस पल यादों के पाखी उड़ मन अंबर पर आ जाते हैं

बादल के सायों के झुरमुट बन जाते हैं दीवारों पर
मोटा एक आवरण चढ़ जाता छितराये उजियारों पर
करवट से चादर की दूरी सहसा लम्बी हो जाती है
भागीरथी उमड़ नयनों से आ कपोल को धो जाती है

सिरहाने वाले तकिये में अनगिन सिन्धु समा जाते हैं
उस पल यादों के पाखी उड़ मन अंबर पर आ जाते हैं

6 comments:

गौतम राजऋषि said...

हमेशा की तरह,समस्त प्रशंसाओं से परे...
"रोशनदानों की झिरियों से झांका करे सितारा कोई
सेज बाँह की नहीं छोड़ती अलसाई अँगड़ाई सोई
खिड़की के पल्ले को पकड़े रहती है बीमार रोशनी
रुठी हुई हवा रहती है होकर गुमसुम और अनमनी

और देवता के घर के भी दरवाजे जब भिड़ जाते हैं
उस पल यादों के पाखी उड़ मन अंबर पर आ जाते हैं"
simply great...

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत ही बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।

बादल के सायों के झुरमुट बन जाते हैं दीवारों पर
मोटा एक आवरण चढ़ जाता छितराये उजियारों पर
करवट से चादर की दूरी सहसा लम्बी हो जाती है
भागीरथी उमड़ नयनों से आ कपोल को धो जाती है

Science Bloggers Association said...

बहुत सुन्दर गीत है, पढ कर मन प्रसन्न हो गया। बधाई स्वीकारें।

पारुल "पुखराज" said...

उस पल यादों के पाखी उड़ मन अंबर पर आ जाते हैं
aabhaar

Shar said...

रहती है जब कोई विवश्ता, छाती नहीं घटा अम्बर पर
तकता छ्त पे रहे दोपहर, चिट्टी धूप ना आये तन धर
हो रकाबियाँ खाली, उलटें, जलतरंग सरगम ना गाये
सावन-भादो आ कर जायें, लौट पिया फिर भी ना आये

और सत्य के द्वारपाल मन के रस्तों पर छा जाते हैं
उस पल यादों के पाखी उड़ मन अंबर पर आ जाते हैं

रिपुदमन पचौरी said...

राकेश जी,

गीत बहुत अच्छा लिखा है। मेरी बधाई स्वीकारें।

---
बादल के सायों के झुरमुट बन जाते हैं दीवारों पर
मोटा एक आवरण चढ़ जाता छितराये उजियारों पर
करवट से चादर की दूरी सहसा लम्बी हो जाती है
भागीरथी उमड़ नयनों से आ कपोल को धो जाती है

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...