उभरे आ संशय के साये

काढ़ रहे थे रांगोली तो अभिलाषा की सांझ सकारे
रंग भरा तो न जाने क्यों उभरे आ संशय के साये

संकल्पों के वटवृक्षों की जड़ें खोखली ही थीं शायद
रहे सींचते निशा दिवस हम उनको अपने अनुरागों से
जुड़े हुए सम्बन्धों के जो सिरे रहे थे बँध कर उनसे
एक एक कर टूट गये वे सहसा ही कच्चे धागों से

रागिनियों ने आरोहित होते स्वर की उंगली को छोड़ा
रहे तड़पते शब्द न लेकिन फिर से होठों पर चढ़ पाये

सपनों का शिल्पित हो जाना, होता सोचा सिर्फ़ कहानी
असम्भाव्य कुछ हो सकता है बातें ये भी कभी न मानी
इसीलिये जब हुआ अकल्पित,ढलीं मान्यतायें सब मन की
अटकी रही कंठ के गलियारे में, मुखरित हुई न वाणी

जाने क्यों यह लगा छलावा है कुछ सत्य नहीं है इनमें
दरवाजे पर आकर पुरबाई ने जितने गीत सुनाये

विश्वासों के प्रासादों की नींव रखी थी गई जहाँ पर
सिकता थी सागर के तट की, या फिर थे मरुथल रेतीले
बन न सकी दीवार, उठाती कंगूरों का बोझा कांधे
और सीढ़ियां थी सम्मुख जो, उनके थे पादान लचीले

निश्चय तो था अवसर पाते, भर लेंगे अम्बर बाँहों में
लेकिन हुई परिस्थिति ऐसी, हाथ नहीं आगे बढ़ पाये

आईने का सत्य, सदा स्वीकार रहे, क्या है आवश्यक
जितने अक्स दिखें थे उनमें कोई परिचय मिला नहीं था
आशाओं के गुलदस्ते में कलियां यों तो लगीं हज़ारों
लेकिन उनके मध्य एक भी फूल मिल सका खिला नहीं था

रहे प्रवाहित पूरी होती हुईं कामनाओं के निर्झर
चित्रलिखित हम खड़े रह गये, आंजुर एक नहीं भर पाये

5 comments:

Shardula said...

Bahut hi marmik, hraday chhoo lene wali kavita!
"चित्रलिखित हम खड़े रह गये, आंजुर एक नहीं भर पाये"
saadar

सुनीता शानू said...

ढूँढ़ रहे थे रांगोली तो अभिलाषा की सांझ सकारे
रंग भरा तो न जाने क्यों उभरे आ संशय के साये
बहुत खूबसूरत किस तरह संशय आकर घेर लेता है आपने शब्दों मे ढाला है,

सपनों का शिल्पित हो जाना, होता सोचा सिर्फ़ कहानी
असम्भाव्य कुछ हो सकता है बातें ये भी कभी न मानी
इसीलिये जब हुआ अकल्पित,ढलीं मान्यतायें सब मन की
अटकी रही कंठ के गलियारे में, मुखरित हुई न वाणी
बहुत मार्मिक गीत है भाईसाहब...
सादर

रंजू भाटिया said...

विश्वासों के प्रासादों की नींव रखी थी गई जहाँ पर
सिकता थी सागर के तट की, या फिर थे मरुथल रेतीले
बन न सकी दीवार, उठाती कंगूरों का बोझा कांधे
और सीढ़ियां थी सम्मुख जो, उनके थे पादान लचीले


बहुत खूब लिखा आपने

रंजना said...

आईने का सत्य, सदा स्वीकार रहे, क्या है आवश्यक
जितने अक्स दिखें थे उनमें कोई परिचय मिला नहीं था
आशाओं के गुलदस्ते में कलियां यों तो लगीं हज़ारों
लेकिन उनके मध्य एक भी फूल मिल सका खिला नहीं था

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Sirf Waah ! Waah ! aur Waah !

aur kya kahun...

Shar said...

"रागिनियों ने आरोहित होते स्वर की उंगली को छोड़ा
रहे तड़पते शब्द न लेकिन फिर से होठों पर चढ़ पाये"

maun ka sandesh sune.

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