आंसू से सिंचित सपनों के अवशेषों पर उगी कोंपलें
मुझसे कहती हैं आँखों में, मैं फिर नूतन स्वप्न संवारूँ
सिर्फ़ काल ही तो निशेश है, बाकी सब कुछ क्षणभंगुर है
संध्या के संग डूबा करता, उगा भोर में जो भी सुर है
एक निमिष की परिभाषायें, बदला करतीं कल्प निगल कर
और रोशनी दिन बन जाती, अंधियारा मुट्ठी में भर कर
यों तो सब कुछ ज्ञात सभी को, लेकिन यादें ताजा करने
मैं इनको रंगों की कूची में भर कर कुछ चित्र निखारूँ
आवाज़ें खो तो जाती हैं, पर अपना अस्तित्व न खोतीं
पा लेना है छुप जाता है जो सीपी के भीतर मोती
प्रतिध्वनियों को अम्बर से टकरा कर लौट पुन: आना है
एक शाश्वत सत्य ! नदी का विलय सिन्धु में हो जाना है
लौटे पुन: जलद में ढल कर, इस तट से गुजरी जो धारा
दिशाबोध का चिन्ह स्वयं को किये, उसे मैं आज पुकारूँ
वहाँ क्षितिज के परे बिन्दु है एक सभी कुछ जो पी जाता
एक दिशा को ही जाता पथ, लौट नहीं है वापिस आताउ
स रहस्य की कथा खोल दूँ एक एक कर अध्यायों में
और नई आशा संचारूँ, थक कर बैठे निरुपायों में
पारायण हो चुकी कथा के जितने चिन्ह अभी बाकी हैं
उन्हें नये संकल्पों के लेने से पहले, उठूँ बुहारूँ
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13 comments:
अद्भुत!!!! क्या बात है...क्या कहूँ!! शब्द तो मेरे पास है ही नहीं! आप तो सब जानते हैं. :)
बहुत सुँदर कविता हैँ जहाँ ब्रह्माँड शब्दोँ मेँ मुखरित हुआ है !
- लावण्या
सुन्दर। आपके कविता संग्रह के विमोचन की बधाई!
जीवन की निरंतरता की दार्शनिक अभिव्यक्ति।
बहुत ख़ूब।
बहुत सुंदर कहा ..अच्छे लगे यह बिम्ब
सुंदर !
वहाँ क्षितिज के परे बिन्दु है एक सभी कुछ जो पी जाता
एक दिशा को ही जाता पथ, लौट नहीं है वापिस आताउ
स रहस्य की कथा खोल दूँ एक एक कर अध्यायों में
और नई आशा संचारूँ, थक कर बैठे निरुपायों में "
सदैव की भांति अन्यतम अति सुंदर अद्भुद गीत..
कवि गहन चिन्तन में डूबे
ध्वनि, किरण सलीब उठाये
भांपे कल्पना मुरझाया स्वर
चाहे सृजन गीत वों गायें ।
ये पीडा, ये उन्कंठा तज
आ तेरा पथ पलक बुहारूँ
तुलसी ना अधिकार चाहती
बनूँ अहिल्या माथ पग धारूँ ।
हवा,लहर,ध्वनि और किरन नव
हो मिश्रित लयबद्ध हो जातीं
उठा शंख कोई सुने सिन्धु स्वर
धारा स्नेह-सिक्त हो गाती ।
समकक्षी को ढूँढे हारिल
कैसे उसकी भूल सुधारूँ
तू प्रज्जवलित हो जग रोशन कर
मैं दग्ध कठं आरती उतारूँ ।
सुंदर गीत है, बधाई।
ऐसा प्रतीत होता है जैसे होठ तो हंस रहें हैं पर मन में वेदना है। लग रहा है कि अकेले दरिया के किनारे बैठ कर लिख है किसी ने ये गीत।
इस हर्ष-विषाद पूर्ण शैली को भी नमन !
जब आप की व्यस्तता थोडी कम होगी, तो आशा है गुरुजी हमें भी कुछ सिखाएंगे :)
तब तक आपके ब्लाग का ग्रंथ पढ कर ही काम चला रहे हैं हम !
नमस्कार राकेश जी, बधाई पुस्तक विमोचन के लिये, समीर जी से रिपोर्ट पङने को मिली, मुझे और विज़ को अपनी प्रति का इंतजार रहेगा|
राकेश जी, प्रणाम,
बहुत अच्छी कविता, नये बिम्ब, कल्पनायें, चिन्तन और दर्शन से भरपूर, मन को भा गई।
समीर जी के ब्लॉग पर आपके कविता संग्रह के विमोचन के बारे में जानकारी मिली, इसके साथ ही कंचनजी के ब्लॉग पर भी आपको पढ़ने को सौभाग्य प्राप्त हुआ। कविता संग्रह के प्रकाशन पर बधाई .....
अनवरत, निरंतर लिखते रहें और अपने चिन्तन को शब्दों में ढाल उसकी खुशबू बिखेरते रहें,
शुभकामनाओं सहित....
सुनील आर. करमेले, इन्दौर
बहुत सुंदर भाई जी !
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