धूप की रहगुजर से निकलती रही

अर्थ पीती रही शब्द की आंजुरी
और अभिप्राय भी प्रश्न बन रह गये
सारे संवाद घिर कर विवादों पड़े
तर्क आधार बिन धार में बह गये
मौन की रस्सियों ने जकड़ कर रखा
छूट स्वर न सका गूँजने के लिये
देहरी सांझ की फिर से सूनी रही
कोई आया नहीं जो जलाता दिये

और फिर नैन की कोर इक दृश्य के
कैनवस के किनारे अटकती रही

नीड़ को लौटते पंछियों के परों
की, हवा फ़ड़फ़ड़ाहट निगलती रही
सांझ चूनर को पंखा बनाये हुए
इक उदासी के चेहरे पे झलती रही
सीढियों में ठिठक कर खड़ी रोशनी
जाये ऊपर या नीचे समझ न सकी
और थी संधि की रेख पर वह खड़ी
न बढ़ी ही उमर और न ढल सकी

कोण को ढूँढ़ते वॄत्त के व्यास में
रोशनी साया बन कर मचलती रही

सरगमें साज के तार में खो गईं
अंतरों से विलग गीत हो रह गये
स्वन के साध ने जो बनाये किले
आह की आंधियों में सभी ढह गये
नैन सर की उमड़ती हुई बाढ़ में
ध्वस्त होती रही सांत्वना की डगर
दॄष्टि के किन्तु आयाम बैठे रहे
आस के अनदिखे अजनबी मोड़ पर

ज़िन्दगी मरुथली प्यास ले हाथ में
धूप की रहगुजर से निकलती रही

9 comments:

सतीश पंचम said...

अच्छी शब्द रचना और अच्छी कविता।

Ghost Buster said...

बहुत सुंदर. एक कोमल शीतलता का अहसास कराती हैं आपकी रचनाएँ. बहुत आभार.

रंजू भाटिया said...

ज़िन्दगी मरुथली प्यास ले हाथ में
धूप की रहगुजर से निकलती रही

बहुत सुंदर रचना ..

Rachna Singh said...

कोण को ढूँढ़ते वॄत्त के व्यास में
रोशनी साया बन कर मचलती रही

saaya aur roshni pehlu haen ek hii zindgii kae

Anonymous said...

शाम को क्या पता किस उपन्यास में
अर्थ ने सन्धि फिर भावनाओं से की
आत्म तो सर्व-दृष्टा बन के रहे
कोई परछाई मन में सिसकती रही !

मथुरा कलौनी said...

बहुत ही भावपूर्ण कविता है। कविता शब्‍दों के मातियों की माला लगती है। बधाई

Anonymous said...

"फिर लगा प्यासे हिरन को बान नदिया के किनारे,
प्यास का बुझना नहीं आसान नदिया के किनारे"
ये बहुत पहले पढा था कहीं ।

Dr. Amar Jyoti said...

'अभिप्राय भी…'
नीरज की याद दिला दी आपने!
बधाई!

गौतम राजऋषि said...

...अब और कहाँ से शब्द लायें राकेश जी प्रशंसा के.हर रचना एक से एक अद्‍भुत....और हमारी शब्द सीमा तो वैसे ही इतनी सीमित है.
फिर गुरू जी के पोस्ट में आपकी किताब के विमोचन का समाचार मिला.हार्दिक बधाईयाँ.
आपकी हस्ताक्षरित प्रति को पाने का क्या तरीका होगा?

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