गीत ये कहने लगा है शिल्प में ढलना असम्भव
देख तुमको शब्दहीना हो ठगा सा रह गया है
एक पल में भूल बैठा अंतरों के अर्थ सारे
है संभल पाता नहीं ले मात्राओं के सहारे
कौन सी उपमा उठा कर कौन सी खूँटी सजाये
कर सके कैसे अलंकॄत भाव जो हैं सकपकाये
चाहता कुछ गा सके पर थरथराते होंठ लेकर
मौन के भुजपाश में बस मौन होकर रह गया है
सोचता है धूप कैसे चाँदनी में आज घोले
रिक्त मिलता कोष है, रह रह उसे कितना टटोले
गंध का जो प्राण, उसको गंध कहना क्या उचित है
अंश के विस्तार में सिमटा हुआ सारा गणित है
कोशिशें कर जो बनाया चित्र कोई बादलों पे
एक झोंके सांस के से वो अचानक बह गया है
रात जिसके शीश पर आ केश बन कर के संवरती
भोर की अरुणाई आ कर नित कपोलों पर मचलती
रागिनी आ सीखती है जिन स्वरों से गुनगुनाना
है कहाँ संभव, उन्हें ले छंद कोई बाँध पाना
गीत का यह भ्रम उसे सामर्थ्य है अभिव्यक्तियों की
एक बालू के घरौंदे के सरीखा ढह गया है
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...
14 comments:
'अंश के विस्तार में सिमटा हुआ सारा गणित है।'
जीवन की जटिल संरचना का दार्शनिक चित्रण!
बहुत सुंदर।
रात जिसके शीश पर आ केश बन कर के संवरती
भोर की अरुणाई आ कर नित कपोलों पर मचलती
रागिनी आ सीखती है जिन स्वरों से गुनगुनाना
है कहाँ संभव, उन्हें ले छंद कोई बाँध पाना
" khubsurtee ka shabd sanyogen ka jvab nahee"
Regards
Ati sunder !
दोपहर की धूप में
कोई सितारा हठी,चंचल
सूर्य का पा स्पर्श मानो
चित्रवत् सा रह गया है ।
जो कहा वो सुन सका ना
जो सुना वो गुन सका ना
निर्बध मन क्यों पूछ्ता है
कुछ अनकहा सा रह गया है?
गीत को है ये पता क्या
बावरा सा इक अहेरी
रात ही आ कर स्वपन में
बात मन की कह गया है !
श्रद्धेय !
"गीत का यह भ्रम उसे सामर्थ्य है अभिव्यक्तियों
की,एक बालू के घरौंदे के सरीखा ढह गया है "
रचनाकार की विनम्रता, इस गीत की खूबसूरती है !
हाँ एक बात और, सुबह से शाम हो गयी तो समझ आया कि बिल्कुल मोनालिसा की तरह है ये कविता । जो देखेगा सोचेगा, उसे देख के मुस्कुरा रही है।
यह तो आप हमारी व्यथा कह गये. आपने कैसे जानी-आपको तो यह बात लागू ही नहीँ होती है. कितना स्नेह है आपका कि आप हमारी तकलीफ झट जान जाते हैं. बहुत ही बेहतरीन रचना!!
फ़िर से बेहतरीन.
एक पल में भूल बैठा अंतरों के अर्थ सारे
है संभल पाता नहीं ले मात्राओं के सहारे
कौन सी उपमा उठा कर कौन सी खूँटी सजाये
कर सके कैसे अलंकॄत भाव जो हैं सकपकाये
....बहुत बहुत शुक्रिया इतनी सुंदर रचनायें एक के बाद एक.और एक नये शब्द से परिचय कराने का भी.
सोचता है धूप कैसे चाँदनी में आज घोले
रिक्त मिलता कोष है, रह रह उसे कितना टटोले
गंध का जो प्राण, उसको गंध कहना क्या उचित है
अंश के विस्तार में सिमटा हुआ सारा गणित है
कोशिशें कर जो बनाया चित्र कोई बादलों पे
एक झोंके सांस के से वो अचानक बह गया है
अह्ह्ह्हा वाह..वाह...क्या गीत है राकेश जी मंत्रमुग्ध कर दिया आपने...बहुत ही खूब.
नीरज
naya geet kab likhenge?
Post a Comment