ऐसा हर इक बार हुआ है, जब भी चाहा लिखूँ कहानी
धो जाता है लिखी इबारत बहता हुआ आँख का पानी
डुबो पीर के गंगाजल में मैने सारे शब्द सँवारे
राजपथों से कटी झोंपड़ी की ताकों से भाव उतारे
बिखरे हुअ कथानक पथ में, एक एक कर सभी उठाये
चुन चुन कर अक्षर, घटनाक्रम एक सूत्र में पिरो निखारे
लेकिन इकतारे की पागल भटकी धुन वह कभी न गूँजी
जिसको थाम रही थी मीरा कान्हा की बन कर दीवानी
लिखा कभी सारांश, कभी तो उपन्यास सी लम्बी बातें
कभी अमावस्या का वर्णन, कभी पूर्णिमा वाली रातें
नभ की मंदाकिनियों के तट, श्याम विवर भी धूमकेतु भी
और भाग्य के राशि-पुंज पर अटकीं उल्का की सौगातें
लिखीं भोर से दोपहरी तक, और सांझ की तय कर दूरी
लेकिन पॄष्ठ उठा देखे जब, छाई हुई दिखी वीरानी
दोहराया मैने भी कुंठा, त्रास, भूख बढ़ती बेकारी
विधवा के सपने, अनब्याही सुता देखने की लाचारी
प्रगतिवाद का परिवर्तन का मैने भी जयघोष बजाया
चेहरों पर की चढ़ीं नकाबें, एक एक कर सभी उतारीं
लेकिन जब आईना देखा, तब अपने भी दिखे मुखौटे
और सामने आई अपनी छुपी हुई सारी नादानी
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11 comments:
लेकिन जब आईना देखा, तब अपने भी दिखे मुखौटे
और सामने आई अपनी छुपी हुई सारी नादानी
वाह , वाह , बहुत अच्छा।
ऐसा हर इक बार हुआ है, जब भी चाहा लिखूँ कहानी
धो जाता है लिखी इबारत बहता हुआ आँख का पानी
गजब..भाई..क्या कहें..शब्द नहीं हैं.
ऐसा हर इक बार हुआ है, जब भी चाहा लिखूँ कहानी
धो जाता है लिखी इबारत बहता हुआ आँख का पानी
लेकिन जब आईना देखा, तब अपने भी दिखे मुखौटे
और सामने आई अपनी छुपी हुई सारी नादानी
क्या बात है .....
कमाल है जी. बेहद शानदार गीत. आनंद आ गया.
ऐसा हर इक बार हुआ है, जब भी चाहा लिखूँ कहानी
धो जाता है लिखी इबारत बहता हुआ आँख का पानी
sahi aur sunder
कवि का दर्द समझने वाले कितने लोग हैं यहाँ...... ?
न किसी को कहानी का पता न समझने की कोई जहमत उठाये ..
क्या लिखना चाह रहे थे और हमने क्या लिखा ....
आपकी इस वेदना को कैसे लिखूं इन प्रतिक्रियाओं में , पूरा एक लेख चाहिए राकेश जी , इसे मैं लिखने का प्रयत्न करूंगा !
यह गीत शानदार गीतों में एक मील का पत्थर साबित होगा !
मोह-भंग से उपजी हताशा की मार्मिक अभिव्यक्ति!
बहुत अच्छी रचना है।बहुत बडिया लिखा है-
डुबो पीर के गंगाजल में मैने सारे शब्द सँवारे
राजपथों से कटी झोंपड़ी की ताकों से भाव उतारे
बिखरे हुअ कथानक पथ में, एक एक कर सभी उठाये
चुन चुन कर अक्षर, घटनाक्रम एक सूत्र में पिरो निखारे
लेकिन इकतारे की पागल भटकी धुन वह कभी न गूँजी
जिसको थाम रही थी मीरा कान्हा की बन कर दीवानी।
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ हैं। इस सुन्दर गीत के लिए बधाई स्वीकारें।
क्या कहूँ, भाव और प्रवाहमयता ने मुग्ध कर दिया.आपका शब्द चयन सदैव ही अभिभूत करता है.बहुत बहुत सुंदर अद्भुत रचना है.इस स्तर का लेखन आज कल बहुत ही कम मिलता है.माता सरस्वती आपपर सदा कृपा बनाये रखें.
shabdateet!!
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