अर्थ सावन के उमड़ते बादलों का तो न जाना
न हुआ सन्देश जो था छुप गया, पहचान पाना
किन्तु दीपक प्रीत के विश्वास का तब जल उठा है
जब तुम्हारे होंठ पर गूँजा, लिखा मेरा तराना
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मैं तुम्हारे नयन के हर चित्र को पहचानता हूँ
और अधरों पर टिका स्वीकार है मैं मानता हूँ
आतुरा तुम हो मेरे भुजपाश में आओ, सिमट लो
किन्तु है संकोच थामे पांव को, मैं जानता हूँ
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क्योंकि करने के लिये है अब न कोई प्रश्न बाकी
इसलिये आकांक्षायें उत्तरों की भी नहीं है
एक पत्थर से भला मैं किसलिये वरदान मांगू
ज़िन्दगी में पत्थरों की जब कमी बिल्कुल नहीं है
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पत्थरों को रंग देकर शीश पर हमने सजाया
फूल, अक्षत रोलियों से नित्य पूजा, जल चढ़ाया
सांस के मंत्रों पिरोई धड़कनों की आहुति दी
और ये सोचा नहीं है आज तक, क्या हाथ आया
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11 comments:
वाह.. क्या बात है.. राकेश जी, सुबह सार्थक कर दी आपके मुक्तकों ने...
bahut khoob.........
वाह वाह..
शब्दों को सही तरीके से पिरोया है आपने.
Bahut badhiya hai sabhee Rakesh ji
जबरदस्त एवं बेहतरीन मुक्तक!! आनन्द आ गया!
kinto hai sankoch thaame paon ko, main rjanta hun...nisankoch kah raha hu sunder bahut sunde
मैं तुम्हारे नयन के हर चित्र को पहचानता हूँ
और अधरों पर टिका स्वीकार है मैं मानता हूँ
आतुरा तुम हो मेरे भुजपाश में आओ, सिमट लो
किन्तु है संकोच थामे पांव को, मैं जानता हूँ
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क्योंकि करने के लिये है अब न कोई प्रश्न बाकी
इसलिये आकांक्षायें उत्तरों की भी नहीं है
एक पत्थर से भला मैं किसलिये वरदान मांगू
ज़िन्दगी में पत्थरों की जब कमी बिल्कुल नहीं है
kya baat hai..ek ek pankti sundar...abhar
क्या माला पिरोते हैं आप ! नमस्कार !
बहुत सुंदर मोती से पिरो दिए हैं आपने इन लफ्जों में
सभी बेहतरीन हैं।
एक पत्थर से भला मैं किसलिये वरदान मांगू
ज़िन्दगी में पत्थरों की जब कमी बिल्कुल नहीं है
***राजीव रंजन प्रसाद
"पत्थरों को रंग देकर शीश पर हमने सजाया
फूल, अक्षत रोलियों से नित्य पूजा, जल चढ़ाया
सांस के मंत्रों पिरोई धड़कनों की आहुति दी
और ये सोचा नहीं है आज तक, क्या हाथ आया"
हम से बेहतर कौन समझेगा इसे !
पत्थरों को रंग देकर शीश पर हमने सजाया
फूल, अक्षत रोलियों से नित्य पूजा, जल चढ़ाया
सांस के मंत्रों पिरोई धड़कनों की आहुति दी
और ये सोचा नहीं है आज तक, क्या हाथ आया
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