होकर मेरा गीत प्रणेता

ढलती हुइ निशा के पल में
और भोर के प्रथम प्रहर में
निंदिया की खिड़की पर कोई
आ मुझको आवाज़ें देता

धुंधली चन्द्र किरण की डोरी को थामे
धीरे धीरे आ जाता है मेरे सपनों में
चित्र उभरता जो नयनों के पाटल पर
वैसा कोई चित्र न परिचित अपनों में
कभी निखरता और कभी ओझल होता
बादल के घूँघट से दिखता हो तारा
बार बार सोचा कुछ नाम उसे दे दूँ
बार बार मैं अपने उपक्रम में हारा

कभी कभी ऐसा लगता है
शायद वह ही है अनजाना
जो कि रहा जाना पहचाना
होकर मेरा गीत प्रणेता

बन्द पड़े मेरे नयनों के दरवाज़े
बिन दस्तक के अनायास खुल जाते हैं
शीशे पर झिलमिल झिलमिल किरणों जैसी
आकॄतियों के मेले आ कर लग जाते हैं
रजत पात्र से कुछ अबीर तब छलक छलक
स्वर्ण किरण की माला में गुंथ जाता है
और अचानक सोये इस निस्तब्ध कक्ष में
दूर कहीं से वंशी सा सुर आ जाता है

खुली पलक में घुले अपरिचय
बन्द पलक के अपने पन में
अन्तर को ढुँढ़ा करता है
मन हो जिज्ञासु नचिकेता

कुछ अजीब सा लगता है अहसास अजाना
अक्षम रहती अभिवयक्ति कुछ उसे कह सके
लगता है कुछ उमड़ा उमड़ा मन के नभ से
किन्तु पिघलता नहीं धार में बँधे बह सके
रह रह कर लगता है मुट्ठी में कुछ बँधता
हाथ खोल देखूँ तो शून्य नजर आता है
पाखी एक बैठता है मन छत मुंड़ेर पर
पाने को सामीप्य बढ़ूँ तो उड़ जाता है

एक पंख चितकबराअ लेकर
अभिलाषित अम्बर को छू ले
इसीलिये सुरहीन कंठ से
शब्दों को रँगता कह देता

14 comments:

अमिताभ मीत said...

खुली पलक में घुले अपरिचय
बन्द पलक के अपने पन में
अन्तर को ढुँढ़ा करता है
मन हो जिज्ञासु नचिकेता
क्या बात है राकेश भाई. सपने दिखाते हैं आप तो.

Sajeev said...

मन जिज्ञासु निचिकेता सा....हर पल सवालों में उलझा ही रहता है

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा--अद्वितीय!! गज़ब!!!!

Satish Saxena said...

...चित्र उभरता जो नयनों के पाटल पर
वैसा कोई चित्र न परिचित अपनों में,
बेहतरीन !

कुश said...

वाकई बहुत बढ़िया.. आनंद आ गया पढ़कर

बालकिशन said...

बहुत उम्दा--अद्वितीय!! गज़ब!!!!

Smart Indian said...

बहुत सुंदर कविता है, राकेश जी. बधाई!

seema gupta said...

बन्द पड़े मेरे नयनों के दरवाज़े
बिन दस्तक के अनायास खुल जाते हैं
शीशे पर झिलमिल झिलमिल किरणों जैसी
आकॄतियों के मेले आ कर लग जाते हैं
रजत पात्र से कुछ अबीर तब छलक छलक
स्वर्ण किरण की माला में गुंथ जाता है
और अचानक सोये इस निस्तब्ध कक्ष में
दूर कहीं से वंशी सा सुर आ जाता है

"its really comendable"
REgards

admin said...

कभी कभी ऐसा लगता है
शायद वह ही है अनजाना
जो कि रहा जाना पहचाना
होकर मेरा गीत प्रणेता

क्या खूब कहा है आपने। बस दिल से वाह वाह ही निकलती है।

रंजू भाटिया said...

किन्तु पिघलता नहीं धार में बँधे बह सके
रह रह कर लगता है मुट्ठी में कुछ बँधता
हाथ खोल देखूँ तो शून्य नजर आता है
पाखी एक बैठता है मन छत मुंड़ेर पर
पाने को सामीप्य बढ़ूँ तो उड़ जाता है

सही कहा ..पर एक उम्मीद रह जाती है दिल में ..बहुत सुंदर कहना अब आपकी कविता के सामने बहुत कम लगता है लिखते रहे

नीरज गोस्वामी said...

रह रह कर लगता है मुट्ठी में कुछ बँधता
हाथ खोल देखूँ तो शून्य नजर आता है
राकेश जी ऐसे शब्द और भाव सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ही लिख सकते हैं.....ऐसी रचना जिसकी प्रशंशा को शब्द अभी बने नहीं...
नीरज

अनामिका said...

ऒर अचानक सोये इस निस्तब्ध कक्ष में
दूर कहीं से वंशी सा सुर आ जाता हॆ

यही वंशी सा सुर ही तो हर हताशा में हंसकर जीने की प्रेरणा देता हॆ।
बहुत ही सुन्दर कविता!!!

योगेन्द्र मौदगिल said...

ढलती हुइ निशा के पल में
और भोर के प्रथम प्रहर में
निंदिया की खिड़की पर कोई
आ मुझको आवाज़ें देता
Kya baat hai Bhai.........
kamaal hai...
Mera swar hai to vyang ka fir bhi Geet kahne ki himakat ki hai....
Nazar daliyegaaa.........

Unknown said...

लगता है कुछ उमड़ा उमड़ा मन के नभ से
किन्तु पिघलता नहीं धार में बँधे बह सके
......बस ऐसा ही है - मनीष

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