संकल्पों का आवारापन, दिशाहीन होकर भटका है
अनुशासन में उन्हें बाँध लूँ, होने लगा आज तत्पर मैं
मौन निशा अंधियारेपन को
ओढ़े बैठी रही रात भर
कोई सितारा नहीं ध्यान जो
देता उसकी कही बात पर
मैं सहभागी बन पीड़ा का
उसकी, जागा हाथ बँटा लूँ
गीत मिला कर उसके सुर में
अपना सुर , मैं कोई गा लूँ
मैने दी आवाज़ भोर की अँगनाई के प्रथम विहग को
लेकिन बात अनसुनी करके वो उड़ गया कहीं अंबर में
एकाकीपन बोझा होता
रही बताती संध्या पागल
दोपहरी ने भी समेट कर
रखे रखा सुधियों का आंचल
ढलता सूरज बोल गया कुछ
किन्तु हवा ने स्वर को रोका
और दे गया दिन हमराही
फिर से आधे पथ में धोखा
नदिया बन कर बह निकली वे गाथायें जो छुपी हुईं थीं
मैं उद्गम के स्रोत ढूँढ़ता रहा एक सूखे निर्झर में
भोर, शब्द दीवाने होते
थकी ओस से कहते कहते
भाव बदलते, एक समय की
धारा के संग बहते बहते
अलग कसौटी पर अर्थों के
अक्सर मूल्य बदल जाते हैं
संप्रेषित कुछ और हुआ जब
शब्द और कुछ कह जाते हैं
अनुवादों के बिन भी समझी जाती हैं मन की भाषायें
जाने था पर दे न सका हूँ उनको कोई भी अवसर मैं
अजनबियत की उम्र रही है
उतनी, जितना हमने चाहा
सम्बन्धों के धागे बुनने
तत्पर है परिचय का फ़ाहा
दूरी हर तय हो जाती है
एक कदम के उठ लेने से
अम्बर का विस्तार सिमटता
लगे फ़ैलने इक डैने से
जो लगती है बात अनर्गल, उसमें भी कुछ गूढ़ रहा है
शिल्पकार इक मध्य रहा है मंदिर की मूरत-पत्थर में
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8 comments:
गुरुवर बहुत खूब लिखा है आपने, बहुत ही सुंदर
राकेश भाई
बहुत दिनों बाद रचना के साथ नज़र आए लेकिन सारा मलाल धुल गया आप की इस रचना को पढ़ कर.ये ऐसी रचना है जो बरसों बरस साथ निभा सकती है. मानवीय संबंधों का अनूठा दस्तावेज है ये रचना...बेहद नपे तुले शब्द और कमाल के भाव जिन्हें उकेरना सिर्फ़ और सिर्फ़ आप द्वारा ही सम्भव है.
नीरज
अनुवादों के बिन भी समझी जाती हैं मन की भाषायें
जाने था पर दे न सका हूँ उनको कोई भी अवसर मैं
bahut sunder
अलग कसौटी पर अर्थों के
अक्सर मूल्य बदल जाते हैं
संप्रेषित कुछ और हुआ जब
शब्द और कुछ कह जाते हैं
अनुवादों के बिन भी समझी जाती हैं मन की भाषायें
जाने था पर दे न सका हूँ उनको कोई भी अवसर मैं
hamesha ki bhanti uttam
दो तीन बार पढ़ गये...अति सुन्दर.
अनुवादों के बिन भी समझी जाती हैं मन की भाषायें
जाने था पर दे न सका हूँ उनको कोई भी अवसर मैं
--वाह!! बहुत बधाई.
अजनबियत की उम्र रही है
उतनी, जितना हमने चाहा
सम्बन्धों के धागे बुनने
तत्पर है परिचय का फ़ाहा
दूरी हर तय हो जाती है
एक कदम के उठ लेने से
अम्बर का विस्तार सिमटता
लगे फ़ैलने इक डैने से
कमाल का लिखते हैं आप राकेश जी ..बार बार पढने को जी चाहता है ..लिखते रहे
लंबे समय के बाद ही सही
कसर पूरी हो गयी रही सही
एक खूबसूरत रचना पढ़ कर
मन प्रसन्न हो गया
जैसे रचना में ही कहीं खो गया
अब वापिस ढूंढ़ कर लाना होगा
लगता है आपके ब्लाग पर जाना होगा
अनुवादों के बिन भी समझी जाती हैं मन की भाषायें
राकेश जी, सादर प्रणाम !
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