आप जिसकी अनुमति दें

एक मुट्ठी में लिये हूं गीत, दूजी में गज़ल है
आप जिसकी दें मुझे अनुमति, वही मैं गुनगुनाऊं

प्रीत के पथ से चली पुरवाई की चन्दन कलम से
गंध की ले रोशनाई , छंद में लिखता रहा हूँ
भोर की पहली किरण के स्वर्ण में मणियां पिरोकर
भाव के आभूषणों को शिल्प में जड़ता रहा हूँ
नैन झीलों में हिलोरें ले रहीं हैं जो तरंगें
वे बनी हं आप ही आ गीत की मेरे रवानी
तितलियों के पंख पर जो हैं कली के चुम्बनों ने
लिख रखीं.दोहरा रहा हूँ शब्द से मैं वह कहानी

जो मधुप गाता रहा है वाटिका की वीथियों में
आपका आदेश हो तो रागिनी मैं, वह सुनाऊं

शब्द जो गणगौर के तैरे गुलाबी वीथियों में
मैं उन्हें क्रमबद्ध कर अशआर की जागीर देता .
घूँघटों से छन रही हैं जो निरन्तर ज्योत्सनायें
वे हुईं हैं भावभीनी नज़्म की हरदम प्रणेता
पैंजनी का सुर, मिला संगीत पीतल के कलश का
नाचता है जोड़ कर आवाज़ अपनी कंठ स्वर से
झिलमिलाती ओढ़नी, गोटे जड़ी उड़ती हवा में
ढल गई है शेर में हर एक वह मेरी गज़ल के

ताल के बिन जो अभी तक अनकही ही रह गईं है
आप कह दें तो गज़ल उस से अधर को थरथराऊँ

छैनियों ने पत्थरों पर जिन कथाओं को तराशा
वे कथायें बन गई हैं गीत की संवेदनायें
पॄष्ठ पर इतिहास के जो दीप अब भी प्रज्वलित हैं
दीप्तिमय करते रहे हैं अर्चना आराधनायें
हर अधूरी रागिनी को पूर्ण करते बोल जो भी
वे बने हैं मंत्र पूजा के तपों में साधकों के
आस की ले कूचियां विश्वास की मधुरिम विभा से
रँग रहे श्रुतियाँ अनेकों ला अधर पर पाठकों के

बन ॠचायें छंद की बिखरे पड़े हैं सामने सब
आपका जिस पर इशारा हो उसी को मैं उठाऊँ

जानता संभव कसौटी गीत अस्वीकार कर दे
और गज़लों के वज़न में संतुलन की खामियाँ हों
हाथ असफ़लता लगे जब शिल्प की अन्वेषणा में
और भावों के कथन में अनगिनत नाकामियाँ हों
किन्तु मेरे मीत जो मेरे अधर पर काँपते हैं
वह गज़ल या गीत जो हैं आप ही के तो लिये हैं
जो कमी है या सुघड़ता, आप ही की प्रेरणा है
शब्द जितने पास थे सब आप ही के हो लिये हैं

स्वर मेरे, अक्षर मेरे बस एक संकुल के प्रतीक्षित
जब मिले, मैं पूर्णता की ओढ़ चादर मुस्कुराऊँ

आप जो आदेश दें मैं आपको अब वह सुनाऊँ

3 comments:

Udan Tashtari said...

एक काम करें...पहले गजल और फिर गीत सुना दें...हमें तो मजा ही आ जायेगा. सुनाईये सुनाईये...!!!

Divine India said...

हमेशा से ही आपका सुनाना हमारा सुनना रहा है…
आप गाते जाए हम मन को संगीत से पिरोते जायेंगे।

महावीर said...

गणगौर शब्द ने तो राजस्थान की याद ताजा कर दी। पंक्तियों में इतना सजीव चित्र
दिया है कि जैसे जयपुर में इस उत्सव को साक्षात देख रहा हूं।
भोर की पहली किरण के स्वर्ण में मणियां पिरोकर
भाव के आभूषणों को शिल्प में जड़ता रहा हूँ
नैन झीलों में हिलोरें ले रहीं हैं जो तरंगें
वे बनी हं आप ही आ गीत की मेरे रवानी
तितलियों के पंख पर जो हैं कली के चुम्बनों ने
लिख रखीं.दोहरा रहा हूँ शब्द से मैं वह कहानी।
हृदय की ये भाव लहरियों को इस अनुपम रचना में देख कर कोई हृदयहीन व्यक्ति ही होगा जिसके हृदय में इसके प्रति आकर्षण ना हो।

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