रात के दरवेश से हर रोज यह कहते सवेरे
रात भर मैने बुने हैं ओ निमग्ने गीत तेरे
पंखुड़ी में फूल की, रख केसरों की वर्त्तिकायें
गंध चन्दन में डुबो अपने ह्रदय की भावनायें
पारिजाती कामना के पुष्प की माला पिरोकर
एक तेरी प्रियतमे करता रहा आराधनायें
तूलिका ने हर दिशा में रंग जितने भी बिखेरे
प्राण सरिते ! देखता हूँ उन सभी में चित्र तेरे
शब्द तेरे नाम वाला अर्चना का मंत्र बन कर
भोर मे संध्या निशा में, हर घड़ी रहता अधर पर
धड़कनों की ताल पर जो नॄत्य करती रागिनी है
सांस हर गतिमान है उसके थिरकते एक स्वर पर
आहुति की आंजुरि मं आ गया संचय समूचा
सप्तरंगी रश्मियों के साथ शरमाते अँधेरे
ज्ञात की अनुभूतियों में तुम, मगर अज्ञात में भी
व्योम में, जल में, धरा में, अग्नि में तुम, वात में भी
तुम विधि ने भाल पर जो लिख रखी है वो कहानी
बिन्दु तुम हो ज़िन्दगी का केन्द्र, रेखा हाथ की भी
चेतना की वीथियों में रूप इक विस्तार पाकर
चित्र में ढल कर तुम्हारे रँग रहा अहसास मेरे
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11 comments:
आहा!! क्या अनुभूति है:
आहुति की आंजुरि मं आ गया संचय समूचा
सप्तरंगी रश्मियों के साथ शरमाते अँधेरे
--बहुत खूब, राकेश भाई.
तूलिका ने हर दिशा में रंग जितने भी बिखेरे
प्राण सरिते ! देखता हूँ उन सभी में चित्र तेरे
बहुत सुंदर .....राकेश जी
तुम विधि ने भाल पर जो लिख रखी है वो कहानी
बिन्दु तुम हो ज़िन्दगी का केन्द्र, रेखा हाथ की भी
बहुत सुन्दर !!
तूलिका ने हर दिशा में रंग जितने भी बिखेरे
प्राण सरिते ! देखता हूँ उन सभी में चित्र तेरे
nice rather too nice
वाहSSSSSSSSSS
बेहतरीन पंक्तियाम…।
हर पंक्ति अपने-आप में परिष्कृत है और प्रेम पूर्णता का अभास दिलाती हैं…।
राकेश जी एक-एक पंक्ति मोती के समान है बहुत सुंदर...
राकेश जी,
आपकी कविता पढने के बाद जो अनुभूति होती है उसका वर्णन अत्यन्त कठिन है.. एक रस आ उढेल देते है आप हर एक शब्द में.. छ्न्द, बिम्ब, भाव किस किस की प्रशन्सा की जाये नही सूझता...
आपकी लेखनी को नमन है
प्रसंशा के लिए एक ही शब्द है,मेरे पास........नि:श़ब़्द्!
प्रसंशा के लिए एक ही शब्द है,मेरे पास........नि:श़ब़्द्!
प्रसंशा के लिए एक ही शब्द है,मेरे पास........नि:श़ब़्द्!
प्रसंशा के लिए एक ही शब्द है,मेरे पास........नि:श़ब़्द्!
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