रोशनी दायरों में पिघलने लगी
चाँदनी आयेगी, ये न निश्चित हुआ, दस्तकें तट पे दे धार हँसने लगी
टिमटिमाते हुए कुमकुमों से झरे
जुगनुओं के महज पंख टूटे हुए
फ़ुनगियों के लटकते रहे शाख से
साये जो दोपहर के थे छूटे हुए
दलदली घास अँगड़ाई लेती रही
कोई आये उठाने उसे सेज से
आस के स्वप्न तैरा किये आँख की
झील में,बिम्ब से एंठ रूठे हुए
सांझ के केश बिखरे, घनी स्याहियां बून्द बन कर गगन से बरसने लगीं
रोशनी दायरों में पिघलने लगी
पत्र ने सरसराते हुए कुछ कहा,
जब इधर से गया एक झोंका मगन
गुलमोहर ने लुटाया उसे फूल पर
थी पिरोकर रखी ढेर उर में अगन
पारिजातों की कलियों ने आवाज़ दे
भेद अपना बताया है कचनार को
चांदनी कैद फिर भी रही रात भर
चांद से न उड़े बादलों के कफ़न
एक कंदील थी जो निशा के नयन में किरन बन गयी, फिर चमकने लगी
रोशनी दायरों में पिघलने लगी
बढ़ रहे मौन के शोर में खो गयी
गुनगुनाती हुई एक निस्तब्धता
पल सभी मोड़ पर दूर ठहरे रहे
ओढ़ कर एक मासूम सी व्यस्तता
रात की छिरछिरी ओढ़नी से गिरा
हर सितारा टँगा जो हुआ, टूट कर
अपनी पहचान को ढूँढ़ती खो गई
राह में आ भटकती हुई अस्मिता
ओढ़ मायूसियों को उदासी घनी, आस पर बन मुलम्मा संवरने लगी
रोशनी दायरों में पिघलने लगी
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6 comments:
टिमटिमाते हुए कुमकुमों से झरे
जुगनुओं के महज पंख टूटे हुए
जैसे रात भर रोते रोते सुबह चांद ढल गया
रात की छिरछिरी ओढ़नी से गिरा
हर सितारा टँगा जो हुआ, टूट कर
अपनी पहचान को ढूँढ़ती खो गई
राह में आ भटकती हुई अस्मिता
शायद हम सब भी इसी तरह भटकते हुये खुद को तलाश रहे हैं
बहुत सुन्दर रचना.. जिसे बार बार पढने को मन चाहे
राकेश जी,बहुत ही खूबसूरती से रचना को तराशा है आपने।
पढते-पढते मै तो स्वरों मे गाने लगा।
बहुत ही बढिया भाव पूर्ण रचना है।बधाई।
"पत्र ने सरसराते हुए कुछ कहा,
जब इधर से गया एक झोंका मगन
गुलमोहर ने लुटाया उसे फूल पर
थी पिरोकर रखी ढेर उर में अगन
पारिजातों की कलियों ने आवाज़ दे
भेद अपना बताया है कचनार को
चांदनी कैद फिर भी रही रात भर
चांद से न उड़े बादलों के कफ़न"
राकेश जी,
हमेशा की तरह गंभीर मौन और संगीत से सरावोर रचना के लिए आपको बधाई…।
हमेशा की तरह बहुत खूब...वाह!!
बढ़ रहे मौन के शोर में खो गयी
गुनगुनाती हुई एक निस्तब्धता
पल सभी मोड़ पर दूर ठहरे रहे
ओढ़ कर एक मासूम सी व्यस्तता
--क्या बात कही है..आनन्द आ गया.
बहुत ही सुन्दर रचना है विशेषकर निम्न पक्तियां…
बढ़ रहे मौन के शोर में खो गयी
गुनगुनाती हुई एक निस्तब्धता
पल सभी मोड़ पर दूर ठहरे रहे
ओढ़ कर एक मासूम सी व्यस्तता
रात की छिरछिरी ओढ़नी से गिरा
हर सितारा टँगा जो हुआ, टूट कर
अपनी पहचान को ढूँढ़ती खो गई
राह में आ भटकती हुई अस्मिता
बहुत खूबसूरत है जैसे की सन्नाटे को चीर कर हवाएं आगे बढ जाती है…और फ़िर रहता है गहरा सन्नाटा और हवा की छुअन का अहसास्…
सुनीता(शानू)
राकेश जी,
आज पहली बार आपको पढ़ा और गीत का नशा उतरते ही खुद पर गुस्सा आया कि अब तक यहाँ क्यों नहीं आये. इतना सुंदर गीत पढ़ाने के लिये धन्यवाद.
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