तुमने जिनको स्वर न दिया, उन गीतों को मैं गाऊं क्योंकर
छन्दों की थाली में मैने अक्षर अक्षर पुष्प संवारे
भावों का जलकलश लिये, आराध्य देव के पांव पखारे
लिये भावनाओं के कुंकुम अक्षत से श्रॄंगार किया है
धड़कन को कर दीप, द्वार पर बिखराये मैने उजियरे
किन्तु झरी पांखुर वाले हैं सुमन, शब्द मात्राओं के बिन
मुरझाये फूलों को पिय के फिर मैं पांव चढ़ाऊं क्योंकर
अभिमंत्रित करके सपनों को सौगंधों के गंगाजल से
पलकों पर टांका, सज्जित कर सुरभित संध्या के काजल से
अभिलाषा की वेणी में गूंथे आशा के कई सितारे
जो उधार लेकर आया था रजनी के झीने आंचल से
किन्तु स्वरों की पायल ने जब सब अनुबन्धन तोड़ दिये हैं
तुम्ही कहो झंकॄत घुंघरू सा मैं आखिर बन जाऊं क्योंकर
भोजपत्र पर लिखी कथाओं को फिर फिर मैने दोहराया
चित्रित एक अजंता को मैं सुधियों में भर भर कर लाया
मीनाक्षी,कोणार्क,पुरी के शिल्पों की अभिव्यक्ति चुरा कर
अनुभूति के रामेश्वर पर फिर मैने अभिषेक चढ़ाया
पर हर पल बिखरा, झंझा में ध्वंस हुए ता्शों के घर सा
तुम्हीं बताओ फिर खंडहर पर नव निर्मान बनाऊँ क्योंकर ??
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7 comments:
हमेशा की तरह, अति उत्तम!!! बधाई.
राकेश जी इतनी अच्छी रचना के लिये, बहुत-बहुत बधाई।
बहुत ही अच्छा गीत। पढ़कर मन खुश हो गया
पर हर पल बिखरा, झंझा में ध्वंस हुए ता्शों के घर सा
तुम्हीं बताओ फिर खंडहर पर नव निर्मान बनाऊँ क्योंकर ??
अतिसुन्दर रचना और अन्त की दो पक्तियों में जीवन का सत्य जो हर व्यक्ति को कभी न कभी झेलना पडता है
जब शब्द ही बंध जाए पढ़कर…
अतिउल्लासित मन से होकर
फिर कैसे और गुणगान करूं मैं
आपके इस सौंदर्य भवन का…।
मन की पंखुड़ियाँ खिल गई ऐसी रचना पढ़कर।
आपकी कविताओं का यह अंदाज़ जिसमें प्रिय ईश्वर और प्रेमी भक्त बन जाता है, मुझे हमेशा से बहुत पसंद है-
छन्दों की थाली में मैने अक्षर अक्षर पुष्प संवारे
भावों का जलकलश लिये, आराध्य देव के पांव पखारे
लिये भावनाओं के कुंकुम अक्षत से श्रॄंगार किया है
धड़कन को कर दीप, द्वार पर बिखराये मैने उजियरे
किन्तु झरी पांखुर वाले हैं सुमन, शब्द मात्राओं के बिन
भई वाह,
बहुत ज़ोरदार तालियाँ !!!!
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