बस घटा रो गई

ताल पर धड़कनों की नहीं बज सकीं
सांस की सरगमें लग रहा सो गईं

शब्द ने कल भी चूमा नहीं था इन्हें
अधलिखे रह गये पॄष्ठ सब आज भी
कोई परछाईं तक भी नहीं दिख सकी
वीथियों में भटकते हुए याद की
मन के दर्पण में छाई हुई धुंध में
सारे आकार घुलते हुए खो गये
उनके अंकुर न फूटे बदल ॠतु गईं
बीज जो थे ह्रदय में कभी बो गये

शून्य बन कर दिवाकर क्षितिज पर उगा
रोशनी अपनी पहचान तक खो गई

स्वप्न की कूचियां, चित्र कल के बनें
कोशिशों में उलझ्ती हुई रह गईं
फूल सूखे किताबों में मिल न सके
आंधियों में सभी पांखुरी उड़ गईं
गंध को पी गई, वक्त की इक हवा
छाप होठों की रूमाल से धुल गई
विस्मॄति के अंधेरे घने साये में
आकॄति मन में जितनी बसीं घुल गईं

और सावन की राहों से बिछुड़ी हुई
चार आंसू, घटा एक आ रो गई

फिर घिरे संशयों के कुहासे घने
धुन्ध में डूब कर पंथ सब रह गये
आज निष्ठा हुई बुझ चुके दीप सी
शेष संकल्प थे जो सभी बह गये
मौसमों ने चुरा रंग वनफूल के
घाटियों पर घनी पोत दीं स्याहियां
तूलिका रंग सिन्दूर के ढूँढ़ते
है भटकती फिरी आठ अँगनाईया

बिम्ब अँगड़ाई लेकर लगे पूछने
प्रीत की अस्मिता अब किधर को गई

7 comments:

Sajeev said...

फिर घिरे संशयों के कुहासे घने
धुन्ध में डूब कर पंथ सब रह गये
आज निष्ठा हुई बुझ चुके दीप सी
शेष संकल्प थे जो सभी बह गये
मौसमों ने चुरा रंग वनफूल के
घाटियों पर घनी पोत दीं स्याहियां
तूलिका रंग सिन्दूर के ढूँढ़ते
है भटकती फिरी आठ अँगनाईया

गीत कलश से निकली एक और सुन्दर अभिव्यक्ति

Divine India said...

राकेश जी,
रजनी के आगमन पर जिस प्रकार मन न चाहते हुए भी गहरे अंधकार में डुब जाता है बस उसी प्रकार इन शब्दों की गहराई हृदय को पास बुलाने लगी… कितना सुंदर लिखा है यह अद्भुत!!!

सुनीता शानू said...

राकेश जी बहुत मुश्किल है आपकी गूढ़ बातों पर टिप्पणी देना...हर रचना गागर में सागर सी समाहित है,सिर्फ़ अच्छा कह देना लगता है गीतकार का अनादर होगा...हमारी कल्पनाओं से परे है आप कविवर...बस इतना सा नम्र निवेदन है,...

चाहे जितने मौसम आते जाते रहें
हम हर पल,हर सास में,
आपकी रचना यूँही सुनते और सुनाते रहे...

सुनीता(शानू)

Udan Tashtari said...

अब क्या कहें. शब्द नहीं मिलते तारीफ के. बस, फिर यही कहते हैं अद्वितीय, अद्भुत!!

स्वप्न की कूचियां, चित्र कल के बनें
कोशिशों में उलझ्ती हुई रह गईं
फूल सूखे किताबों में मिल न सके
आंधियों में सभी पांखुरी उड़ गईं

-अति सुन्दर.

Mohinder56 said...

गीत कलश की साहित्यक फ़ुलवारी में एक और सुन्दर अनमोल पुष्प.

कंचन सिंह चौहान said...
This comment has been removed by the author.
कंचन सिंह चौहान said...

मुझे लगता है कि मेरी ही नही, आपको टिप्पणी देने वाले हर व्यकति की याही समस्या है राकेश जी! कि वो आपकी प्रशासा के लिये शब्द कहाँ से लाये! बहुत अच्छा तो बहुत लोग लिखते है, लेकिन उससे भी अच्छा लिखने वालों के लिये क्या टिप्पणी की जाए.....!

ताल पर धड़कनों की नहीं बज सकीं
सांस की सरगमें लग रहा सो गईं

शब्द ने कल भी चूमा नहीं था इन्हें
अधलिखे रह गये पॄष्ठ सब आज भी
कोई परछाईं तक भी नहीं दिख सकी
वीथियों में भटकते हुए याद की
मन के दर्पण में छाई हुई धुंध में
सारे आकार घुलते हुए खो गये
उनके अंकुर न फूटे बदल ॠतु गईं
बीज जो थे ह्रदय में कभी बो गये

शून्य बन कर दिवाकर क्षितिज पर उगा
रोशनी अपनी पहचान तक खो गई

स्वप्न की कूचियां, चित्र कल के बनें
कोशिशों में उलझ्ती हुई रह गईं
फूल सूखे किताबों में मिल न सके
आंधियों में सभी पांखुरी उड़ गईं
गंध को पी गई, वक्त की इक हवा
छाप होठों की रूमाल से धुल गई
विस्मॄति के अंधेरे घने साये में
आकॄति मन में जितनी बसीं घुल गईं

और सावन की राहों से बिछुड़ी हुई
चार आंसू, घटा एक आ रो गई
पंक्तियों का अर्थ सिर्फ समझा जा सकता है, इनको प्रशंसा के शब्द नही दिये जा सकते! अक्षमता के लिये क्षमा...!

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