संभव है इस बार

संभव है इस बार सदी के बँधे हुए बन्धन खुल जायें
संभव है इस बार आंसुओं से सारे क्रन्दन धुल जायें
संभव है इस बार नदी के तट की उजड़ी हुई वाटिका
में लहरों से सिंचित होकर महकों के चंदन घुल जायें


जगा रहाहूँ आज नये स्वर, एक यही मैं बात सोचकर
ओ सहभागी कंठ जोड़ लो अपना तुम भी आगे बढ़ कर

माना कल भी घिर आये थे ऐसे ही आशा के बादल
माना इसीलिये खोली थी कलियों ने सुधियों की सांकल
माना कल भी पनघट पर था रीते कलशों का सम्मेलन
माना कल भी गाता था मन मेरा ये आवारा पागल

किन्तु मेरे सहयोगी ! क्षण में सब कुछ सहज बदल जाता है
लिखा हुआ बदलाव समय की उठती गिरती हर करवट पर

साक्षी है इतिहास कि स्थितियां सब परिवर्तनशील रही हैं
गंगायें शिव के केशों से बिना रुके हर बार बही हैं
सब कुछ सम्भव, सब क्षणभंगुर, कहते रामायण, सुखसागर
विश्वासों में ढले दीप को कभी ज्योति की कमी नहीं है

तुम भी मेरे संकल्पों में आओ अपना निश्चय घोलो
तब ही बरसेगी अभिलाषा की अमॄतमय घटा उमड़ कर

एक किरण बन गई चुनौती गहन निशा के अंधियारे को
एक वर्तिका है आमंत्रण, दिन के उज्ज्वल उजियारे को
एक पत्र की अंगड़ाई से उपवन में बहार आ जाती
एक कदम आश्वासन देता है राहों का बंजारे को

एक गीत की संरचना में जुड़ी हुई इसलिये लेखनी
शत सहस्त्र गीतों में निखरे शारद का आशीष निखर कर

4 comments:

Satyendra Prasad Srivastava said...

बहुत ही प्यारा गीत। संभव है इस बार सदी के बँधे हुए बन्धन खुल जायें--बहुत गहरी बात कह दी आपने।

Udan Tashtari said...

बहुत ही सुन्दर, अपने भीतर अनेक संदेशों को समाहित किये गहरा गीत. बहुत बहुत बधाई.

राजीव रंजन प्रसाद said...

राकेश जी
जब से आपको पढना आरंभ किया है, गीत लिखने का यत्न करने लगा हूँ। आपके लेखन से बेहद प्रभावित हूँ। इस मनमोहक गीत का आभार..

*** राजीव रंजन प्रसाद

Mohinder56 said...

राकेश जी अत्यन्त सुन्दर गीत बन पडा है
सच मेँ कभी कभी मनुष्य आशारूपी दिये के सहारे अपनी सारी उमर गुजार देता है चाहे वह उसका भ्रम ही हो.. और मन के क्या कहने.. पल भर मेँ थोडी सी खुशी से पागल सा हो जाता है और थोडे से गम से बेहद गमगीन...
बस जीवन इसी उहापोह मे गुजर जाता है

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