लाल, नीले, हरे, बैंगनी, कत्थई, रंग ऊदे मिले, रंग धानी मिले
तोतई, चम्पई, भूरे पीले मिले, रंग मुझको कभी आसमानी मिले
रंग सिन्दूर मेंहदी के मुझको मिले, रंग सोने के चांदी के आये निकट
पर न ऐसे मिले रंग मुझको कभी, आपकी जिनसे कोई निशानी मिले
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चांद सोया पड़ा था किसी झील में, आपका बिम्ब छूकर महकने लगा
गुलमोहर की गली में भटकता हुआ पल पलाशों सरीखा दहकने लगा
शांत निस्तब्धता की दुशाला लिये, एक झोंका हवा का टँगा नीम पर
आपके होंठ पर एक स्मित जो जगी, तो पपीहे की तरह चहकने लगा
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नव वर्ष २०२४
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7 comments:
वाह वाह, बहुत खुब, राकेश भाई!!
राकेश जी,
कुछ प्रभावशाली शब्द मुझे भी सिखा दीजिये, जिससे भविष्य में आपकी अनुपम रचनाओं पर कम से कम एक योग्य टिप्पणी तो कर सकूं.
ऐसी सुंदर रचना पर टिप्पणी करने के लिये, फिलहाल तो मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं.
तेरी निगाहें जब मुझ पर रुकी....सात रंगों में सज गई
रंगों में तेरी निशानी सभी....स्मित बन कर होठों में रुक गई..
"शांत निस्तब्धता की दुशाला लिये, एक झोंका हवा का टँगा नीम पर".....बहुत सुंदर !!
वाह ! बहुत बहुत सुंदर
राकेश जी,
'शांत निस्तब्धता की दुशाला लिये' के स्थान पर 'शांत निस्तब्धता का दुशाला लिये' कर दीजिये तो व्याकरण दोष भी समाप्त हो जाएगा और कविता भी उत्कर्ष प्राप्त करेगी .
अनुरागजी
जब भी चाहा है मैने लिखूँ गीत मैं, शब्द मुझको महज आठ दस ही मिले
बस उन्हीं में पिरोता रहा हूँ सदा, भाव अनुराग के औ शिकवे गिले
उअर बेजी,प्रत्यक्षा,उड़नतश्तरी,आप्से सिर्फ़ इतना कहूँगा कि , जब
आपका नेह पाया तभी तो मेरे शब्द हैं गुनगुनाते हुए आ खिले.
प्रियंकर जी
काव्य का व्याकरण मैने जाना नहीं
शब्द कागज़ पे खुद ही उतरते गये
भावनाओं की गंगा उमड़ती रही
छंद के शिल्प खुद ही संवरते गये
भावना के आगे व्याकरण का कोई अर्थ नही ! मुबारक हो राकेश जी !
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