ज़िन्दगी उलझी हुई है कुछ अधूरे प्रश्न लेकर
और उत्तर की कोई संभावना दिखती नहीं है
श्याम पट पर ज्यों हथेली की किसी ने छाप रख दी
कुछ त्रिभुज हैं, बिन्दु हैं कुछ और कुछ रेखायें धूमिल
जोड़ बाकी औ; गुणा के चिन्ह सारे खो गये हैं
हल समस्या कर सके उस पात्र की उपलब्धि मुश्किल
और संशोधन हुआ है एक भी त्रुटि का असंभव
कुछ मिटा कर फिर लिखें, उस भांति की तख्ती नहीं है
जानते हैं प्रश्न हैं कुछ, प्रश्न क्या पर कौन बूझे
प्रश्न भी जब प्रश्न पूछे तो न उत्तर कोई सूझे
अब चलन बदले, न उत्तर-माल सौंपी जा रही है
जो लिये सन्दर्भ सुलझाते रहे, थे और दूजे
वॄत्त के गोलार्ध में भटकी नजर दिन रात प्रति पल
जो सही उस एक बिन्दु पर मगर रुकती नहीं है
प्रश्न कुछ उगते रहे हैं अर्घ्य के जल से सवेरे
और कुछ अँगड़ाई लेते देख कर निशि के अँधेरे
कुछ जगाती, खनखनाहट चूड़ियों की पायलों की
और कुछ सहसा बिना कारण हवाओं ने चितेरे
डूब कर असमंजसों में रह गईं हैं राह सारी
और घड़ियों की गति, पल भी जरा थमती नहीं है.
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3 comments:
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ज़िन्दगी उलझी हुई है कुछ अधूरे प्रश्न लेकर
और उत्तर की कोई संभावना दिखती नहीं है
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