पहचान पुरानी

जाने क्यों लगता है तुमसे है मेरी पहचान पुरानी
यद्यपि हम तुम मिले नहीं हैं और न देखी कोई निशानी

पहली बार सुना था मैने नाम तुम्हारा तो जाने क्यों
लगा बजी है जलतरंग सी जैसे कोई उद्यानों में
दुल्हन के अधरों पर पहला पहला कोई शब्द खिला हो
या सरोद की अँगड़ाई हो घुली पपीहे की तानों में

टेरी हो, कालिन्दी के तट पर बाँसुरिया हो दीवानी
जाने क्यों लगता है तुमसे है मेरी पहचान पुरानी

चित्र वीथिका की दीवारों पर जितने भी चित्र लगे हैं
उनमें सबमें अंकित लगता बनी प्रेरणा छवि तुम्हारी
भित्ति चित्र हों मूर्त्ति शिल्प हो, भले अजन्ता हो, मीनाक्षी
सबमें उभरी हुई कलाकॄति करती जयजयकार तुम्हारी

चित्र तुम्हारे बना तूलिका, होने लगती है अभिमानी
जाने क्यों लगता है तुमसे है मेरी पहचान पुरानी

2 comments:

Shar said...

so toh hai:)

Unknown said...

This poem . . . from your pen??

Feels like a cycle rally from Schumacher!
दुल्हन के अधरों पर पहला पहला कोई शब्द खिला हो-- this is the only image that is new :(

Anyway, hope that the message was conveyed:)

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...