खुश्कियां मरूथलों की जमीं होंठ पर
शुष्क होठों पे उगती रही प्यास भी
आपके होंठ के स्पर्श की बदलियां
पर उमड़ के नहीं आ सकीं आज भी
नैन पगडंडियों पर बिछे रह गये
मानचित्रों में उल्लेख जिनका न था
इसलियी आने वाला इधर की डगर
राह भटका हुआ एक तिनका न था
चूमने पग कहारों के, मखमल बनी
धूल, नित धूप में नहा संवरती रही
गंध बन पुष्प की बाँह थामे हवा
कुछ झकोरों में रह रह उमड़ती रही
सरगमें रागिनी की कलाई पकड़
गुनगुनाने को आतुर अटकती रहीं
उंगलियों की प्रतीक्षा मे रोता हुआ
मौन होकर गया बैठ अब साज भी
रोलियां, दीप, चन्दन, अगरबत्तियाँ
ले सजा थाल आव्हान करते रहे
आपके नाम को मंत्र हम मान कर
भोर से सांझ उच्चार करते रहे
दिन उगा एक ही रूप की धूप से
कुन्तलों से सरक आई रजनी उतर
केन्द्र मेरी मगर साधना के बने
एक पल के लिये भी न आये इधर
घिर रही धुंध में ढूँढ़ती ज्योत्सना
एक सिमटे हुए नभ में बीनाईयां
स्वप्न कोटर में दुबके हुए रह गये
ले न पाये कहीं एक परवाज़ भी
हाथ में शेष, जल भी न संकल्प का
धार नदिया की पीछे कहीं रूक गई
तट पे आकर खड़ी जो प्रतीक्षा हुई
जो हुआ, होना था मान कर झुक गई,
जो भी है सामने वह प्लावित हुआ
बात ये और है धार इक न बही
जानते हैं अधूरी रहेगी सदा
साध, जिसको उगाते रहे रोज ही
खो चुका है स्वयं अपने विश्वास को
थाम विश्वास उस को, खड़े हैं हुए
ठोकरें खाके संभले नहीं हैं कभी
हम छलावों में उलझे हुए आज भी
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1 comment:
.. पगडंडियों ...मानचित्रों में उल्लेख जिनका न था
इसलियी आने वाला इधर की डगर
राह भटका हुआ एक तिनका न था
Beautiful!
धूल, नित धूप में नहा संवरती रही
Is the rythm here broken by "नहा"! Or is it just my imagination?
जो भी है सामने वह प्लावित हुआ
बात ये और है धार इक न बही
Very emotional!
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