गज़ल बन गई

आपकी दॄष्टि का जो परस मिल गया, फूल की एक पांखुर कमल बन गई
आपका हाथ छूकर मेरे हाथ में भाग्य की एक रेखा अटल बन गई
शब्द की यह लड़ी जो रखी सामने, हो विदित आपको यह कलासाधिके
आपके पग बँधी थी तो पायल रही, मेरे होठों पे आई गज़ल बन गई

5 comments:

Udan Tashtari said...

वाह, राकेश भाई, बहुत खुब.

समीर लाल

Pratyaksha said...

बहुत खूब !!!

राकेश खंडेलवाल said...

आपके प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद

Satish Saxena said...

गज़ब का लेखन है ! बधाई राकेश जी !

सतीश

Shar said...

आज फ़िर से नया सत्र शुरू कर रही हूँ ओपन यूनी का :) आपको नमन!
Dec 09

नव वर्ष २०२४

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