धुंध में डूबी हुई एकाकियत बोझिल हुई है
मैं किसी की याद की पल पल प्रतीक्षा कर रहा हूँ
मानसी गहराईयों में अनगिनत हैं जाल डाले
चेतना, अवचेतना के सिन्धु भी मैने खंगाले
आईने पर जो जमी उस गर्द को कण कण बुहारा
सब हटाये गर्भ-ग्रह में जम गये थे जो भी जाले
तीर पर भागीरथी के, आंजुरि में नीर भर कर
जो उठाईं थीं शपथ, उनकी समीक्षा कर रहा हूँ
खोल कर बैठा पुरानी चित्र की अपनी पिटारी
हाथ में थामे हुए हूँ मैं हरी वह इक सुपारी
तोड़ने सौगंध का बाँधा हुआ हर सिलसिला जो
पीठ के पीछे उठा कर हाथ थी तुमने उछारी
कोई भी सन्मुख नहीं है पात्र, फिर भी रोज ही मैं
कल्पना की गोद में कोई सुदीक्षा भर रहा हूँ
एक चितकबरा है, दूजा इन्द्रधनु के रंग वाला
जिन परों को डायरी में है रखा मैने संभाला
हैं उन्हें ये आस कोई उंगलियों का स्पर्श दे दे
तो है संभव देख पायें फिर किसी दिन का उजाला
उत्तरों की माल .मुझको प्रश्न से पहले मिली है
फिर न जाने किसलिये देते परीक्षा डर रहा हूँ
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नव वर्ष २०२४
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2 comments:
अंजुरि में जो भरा नीर था
साफ दिखता उसमें चेहरा था तेरा
याद लेकिन टपक गई हाथों से मेरे
सूनी आँखों में बचा सिर्फ स्वप्न ही तो था
प्रत्यक्षा
"मैं किसी की याद की पल पल प्रतीक्षा कर रहा हूँ"
बाप रे !! इतना सुन्दर !!
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"तोड़ने सौगंध का बाँधा हुआ हर सिलसिला जो
पीठ के पीछे उठा कर हाथ थी तुमने उछारी"
इसका क्या मतलब हुआ गुरुजी ? कोई जल्दी नहीं है, जब भी समय हो बतायें ।
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"कोई भी सन्मुख नहीं है पात्र, फिर भी रोज ही मैं
कल्पना की गोद में कोई सुदीक्षा भर रहा हूँ"
"एक चितकबरा है, दूजा इन्द्रधनु के रंग वाला
जिन परों को डायरी में है रखा मैने संभाला
हैं उन्हें ये आस कोई उंगलियों का स्पर्श दे दे
तो है संभव देख पायें फिर किसी दिन का उजाला"
इतना सुन्दर भी कोई लिख सकता है ??
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