बजी है बाँसुरी बन कर तुम्हारे नाम की खुश्बू
अधर पर थरथराती है तुम्हारे नाम की खुश्बू
कलम हाथों में मेरे आ गई जब गीत लिखने को
महज लिख कर गई है बस तुम्हारे नाम की खुश्बू
तुम्हीं पर जीस्त का हर एक लम्हा थम गया अब तो
कभी आगाज़ की खुश्बू कभी अंजाम की खुश्बू
दरीचे से उतर कर धूप आती है जो कमरे में
लिये वो साथ आती है महकती शाम की खुश्बू
मेरी हर सांस की पुरबाई में है घुल गई ऐसे
कि सीता की सुधी में ज्यों बसी हो राम की खुश्बू
जुड़ी है जाग से भी नींद से भी रात दिन मेरी
हुई गलियों में रक्सां आ तुम्हारे गांव की खुशबू
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नव वर्ष २०२४
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3 comments:
राकेश जी,
बहुत ही सुन्दर रचना रचना!
कभी आगाज़ की खुश्बू कभी अंजाम की खुश्बू
खूबसूरत खुशबू
"जुड़ी है जाग से भी नींद से भी रात दिन मेरी
हुई गलियों में रक्सां आ तुम्हारे गांव की खुशबू"
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ये सुना ही होगा आपने फैज़ अहमद फैज़ साहिब को:
"चश्म-ऐ-नम जान-ऐ-शोरीदा काफ़ी नही, तहोमत-ऐ-इश्क-ऐ-पोशीदा काफ़ी नही, आज बाज़ार में पा-बजौला चलो
दस्त-अफशां चलो, मस्त-ओ-रक्सां चलो, ख़ाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामाँ चलो, राह तकता है सब शहर-ऐ-जानां चलो "
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