मेरे दर्पण की परछाईं के नैन में चित्र तेरे नजर मुझको आते रहे
मेरे अधरों पे तेरे सुरों से जगे, गीत, आकर गज़ल गुनगुनाते रहे
मेरे सपनों का विस्तार सिमटा रहा,तेरे लहराते आँचल के अंबर तले
तेरे अहसास के दीप हर साँझ को, मेरी गलियों में आ जगमगाते रहे
तूलिक मचली जब उंगलियों में मेरी, चित्र तेरे ही केवल बनाती रही
तेरे होठों की स्मित का स्पर्श पा, बाग की हर कली मुस्कुराती रही
लेखनी कोशिशें करते करते थकी, पर नहीं न्याय कर पयी है रूप से
चूम कर पग तेरे भोरे की रश्मियाँ मेरी राहों में कंचन लुटाती रहीं.
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नव वर्ष २०२४
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1 comment:
"मेरे दर्पण की परछाईं के नैन में चित्र तेरे नजर मुझको आते रहे"
वाह ! वाह !
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