तीन गीत


गीत तेरे होंठ पर


गीत तेरे होंठ पर खुद ही मचलने लग पड़ें आ
इसलिये हर भाष्य को व्यवहार मैं देने लगा हूँ

देव पूजा की सलौनी छाँह के नग्मे सजाकर
काँपती खुशबू किसी के नर्म ख्यालों से चुराकर
मैं हूँ कॄत संकल्प छूने को नई संभावनायें
शब्द का श्रन्गार करता जा रहा हूँ गुनगुनाकर

अब नयन के अक्षरों में ढल सके भाषा हॄदय की
इसलिये स्वर को नया आकार मैं देने लगा हूँ

रूप हो जो आ नयन में खुद-ब-खुद ही झिलमिलाये
प्रीत हो, मन के समंदर ज्वार आ प्रतिपल उठाये
बात जो संप्रेषणा का कोई भी माध्यम न माँगे
और आशा रात को जो दीप बन कर जगमगाये

भावना के निर्झरों पर बाँध कोई लग न पाये
इसलिये हर भाव को इज़हार मैं देने लगा हूँ

मंदिरों की आरती को कंठ में अपने बसाकर
ज्योति के दीपक सरीखा मैं हॄदय अपना जला कर
मन्नतों की चादरों में आस्था अपनी लपेटे
घूमता हूँ ज़िन्दगी के बाग में कलियाँ खिलाकर

मंज़िलों की राह में भटके नहीं कोई मुसाफ़िर
इसलियी हर राह को विस्तार मैं देने लगा हूँ

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दहलीज का पत्थर

शुक्रिया, दहलीज का पत्थर मुझे तुमने बनाया
है सुनिश्चित अब तुम्हारे पांव की रज पा सकूँगा

जब किसी देवांगना के हाथ की डलिया हिलेगी
और उसमें से छिटक कर फूल की पाँखुर गिरेगी
अर्घ्य के जल की किसी इक बूंद से स्नान होगा
और रंग कर रोलियों में एक अक्षत गिर पड़ेगा

एक पल को ही सही मैं भी बनूँगा तुम सरीखा
और तुम मुझमें बसे हो गर्व से मैं कह सकूँगा

गोपुरम पर शीश अपना कौन है बोलो झुकाता
चूम कर पेशानियों को कौन है सज़दा कराता
मैं बिछा हूँ पांव में तो शीश मुझ पर झुक रहे हैं
आपके याचक सभी अब प्यार मुझसे कर रहे हैं

द्वारका को हो गमन, या वन-गमन के कारुणिक पल
मैं प्रथम चुम्बित हुआ, ये थाति लेकर रह सकूँगा
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गीत तो मेरे अधर पर

गीत तो मेरे अधर पर रोज ही मचले सुनयने
पर तुम्हारे स्पर्श के बिन रह गये हैं सब अधूरे

मन अजन्ता सा रंगा है चाँदनी के रंग लेकर
फूल के सपने बुने हैं प्रीत की रसगन्ध लेकर
दीप की पावन शिखा से बाँध कर संबंध डोरी
आस्थाओं के सघन वटवॄक्ष से कोंपल बटोरी

पर प्रतीक्षित मंत्र के उच्चार का होकर तुम्हारे
मैं धुंआ बन अगरबत्ती का कहो कब तक बहूँ रे

संदली हर कामना के ताजमहली बिम्ब में खो
रूप की भागीरथी में डूबकर फिर गंधमय हो
सिलसिले कचनार के कुछ,जोड़ कर फिर गुलमोहर से
वादियों में साँझ के भरता रहा हूँ रंग दुपहर से

सरगमी सारंगियों का साथ लेकिन मिल न पाया
जल रहे एकाकियत को ओढ़ कर अब तानपूरे

वॄन्द कानन में खनकती पायलों के सुर सजीले
हाथ में उगते हुए बूटे हिना के कुछ रंगीले
स्वप्न की कजरी नयन को भेजती रह रह निमंत्रभ
और पग को चूमने होता अलक्तक का समर्पण

भोर की उगती हुई पहली किरण, संबल बना कर
धूप को आगोश में ले, स्वर्णमय होते कंगूरे

शब्द की नित पालकी उतरी सितारों की गली में
हो अलंकॄत गंध के टाँके लगाती हर कली में
और पाकर अंजनी के पुत्र से कुछ प्रेरणायें
झूलती अमराई में आकर हिंडोले नित हवायें

दॄष्टि-चुम्बन की प्रतीक्षा में,पलक को राह कर कर
छंद का हर शिल्प कहता आ मुझे तू आज छूरे

अर्चना के दीप की मधुरिम शिखा में जगमगाकर
आरती की घंटियों के साथ सुर अपना मिलाकर
नित नयी उपमाओं की पुष्पांजलि भरता रहा हूँ
कल्पनारत हो निरंतर साधना करता रहा हूँ

रागिनी का हाथ थामे भाव भटका भोर से निशि
प्रश्न लेकिन प्रश्न करता है बता है कौन तू रे

चाँदनी के हाथ में है झील का दर्पण अचंभित
रात की कोमल कली भी रह गई है अर्ध- विकसित
याद के पाटल फिसलती, आँख की शबनम निशाभर
भोर से खामोशियाँ बैठी रही है द्वार आकर

एक छलना के थिरकते मोहजालों में उलझकर
स्वर तकार्जा कर रहा है तुम कहो मैं क्या कहूँ रे
राकेश खंडेलवाल

4 comments:

Shar said...

"रूप हो जो आ नयन में खुद-ब-खुद ही झिलमिलाये
प्रीत हो, मन के समंदर ज्वार आ प्रतिपल उठाये
बात जो संप्रेषणा का कोई भी माध्यम न माँगे
और आशा रात को जो दीप बन कर जगमगाये"

Shar said...

"शुक्रिया, दहलीज का पत्थर मुझे तुमने बनाया
है सुनिश्चित अब तुम्हारे पांव की रज पा सकूँगा"

Shar said...

"दॄष्टि-चुम्बन की प्रतीक्षा में,पलक को राह कर कर
छंद का हर शिल्प कहता आ मुझे तू आज छू रे"

Shar said...

"याद के पाटल फिसलती, आँख की शबनम निशाभर
भोर से खामोशियाँ बैठी रही है द्वार आकर

एक छलना के थिरकते मोहजालों में उलझकर
स्वर तकाjaa कर रहा है तुम कहो मैं क्या कहूँ रे"

sabh kuch ati sunder hain kaviraj, par yeh jo sari uprokt panktiyaan hain chamtkaari hain
:)

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