गीत संकलन

बांसुरी


मन हो घनश्याम करता प्रतीक्षा रहा
आप राधा बने जब इधर आयेंगे
ज़िन्दगी की मेरी बाँसुरी के स्वरों
पर नये गीत खुद ही सँवर जायेंगे
रात भर थे सितारे जले, आपको
साथ ले आयेंगी रश्मियां भोर की
आस्था का सिरा थाम कर हर घडी
थी सुलगती रही आस की डोर भी
पर न आई उषा,बादलों में छुपे,
सूर्य ने घर के बाहर न भेजा उसे
और फिर रह गये स्वप्न बिखरे हुऎ
घोर तन्हाई के विषधरों से डंसे
एक दीपक खडा सांझ के द्वार पर
जुगनुओं को शिखा पर सजाये हुए
सोचते, आपके द्रष्टि - स्पर्श से
फूल बन ये गगन में बिखर जायेंगे
हाथ की धुन्ध रेखाओं में ढूँढते
उम्र गुजरी, न किस्नत की कोई मिली
भाग्य ने द्वार खोला नहीं कोई भी
दस्तकें देते दोनों हथेली छिली
लग रहा कोई आसेब का चक्र सा
गिर्द मेरे निरन्तर है चलता हुआ
वक्त के ज्योतिषी ने कहा, आपके
आगमन से ही सुधरेगी यह ग्रहदशा
आँज उत्सुक पलों को नयन में, मेरी
पन्थ, पगडंडियाँ हैं निहारा करीं
पाके सिकता के कण आपके पाँव से
रंग साधों के सिन्दूर हो जायेंगे
सोचता हूँ कि मनुहार जो कर रहा
शीघ्र ही वे फ़लीभूत हो जायेंगी
आपजी पालकी के सिरे से बँधी
वाटिका में बहारें चली आयेंगी
रेशमी कल्पनाओं की अँगडाईयाँ
नभ को छूने लगेंगी उठा हाथ को
तुष्ट हो जायेंगे प्यास के पल सभी
जो तरसते रहे आपके साथ को
फूल की पाँखुरी, आँजुरी में मेरी
आपके छू अधर जब चली आयेगी
देवताओं के आशीष तब राह पर
मेरी आ चांदनी जैसे बिछ जायेंगे
राकेश खंडेलवाल
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मौसम

पल में तोला हुआ, पल में माशा हुआ
लम्हे लम्हे ये मौसम बदलता रहा

मेरी खिडकी के पल्ले से,बैठी,सटी
एक तन्हाई जोहा करी बाट को
चाँदनी ने थे भेजे सन्देशे , मगर
चाँद आया नहीं आज भी रात को
एक बासी थकन लेती अन्गडाईयाँ
बैठे बैठे थकी,ऊब कर सो गई
सीढियों में ही अटके सितारे रहे
छत पे पहुँचे नहीं और सुबह हो गई

अनमनी हो गई मन की हर भावना
रंग चेहरे का पल पल बदलता रहा

ले उबासी खडी भोर की रश्मियाँ
कसमसाते हुए, आँख मलती रहीं
कुछ अषाढी घटाओं की पनिहारिनें
लडखडा कर गगन में संभलती रही
हो के भयभीत, पुरबा, चपल दामिनी
के कडे तेवरों से, कहीं छुप गई
राहजन हो तिमिर था खडा राह में
दीप की पूँजियाँ- हर शिखा लुट गई

और मन को मसोसे छुपा कक्ष में
एक सपना अधूरा सिसकता रहा

था छुपा नभ पे बिखरी हुई राख में
सूर्य ने अपना चेहरा दिखाया नहीं
तान वंशी की गर्जन बनी मेघ का
स्वर पपीहे का फिर गूँज पाया नहीं
बाँध नूपुर खडे न्रत्य को थे चरण
ताल बज न सकी रास के वास्ते
आँधियाँ यूँ चलीं धूल की हर तरफ़
होके अवरुद्ध सब रह गये रास्ते

देख दहके पलाशों की रंगत चमक
गुलमोहर का सुमन भी दहकता रहा

एक पल के लिये ही लगा आई है
द्वार से ही गई लौट वापिस घटा
झाँकती ही रही आड चिलमन की ले
चौथी मन्ज़िल पे बैठी हुई थी हवा
धूप थाली में भर, ले गई दोपहर
और सन्ध्या गई रह उसे ताकती
पास कुछ भी न था शेष दिनमान के
वो अगर माँगती भी तो क्या माँगती

रात की छत पे डाले हुए था कमन्द
चोर सा चुप अन्धेरा उतरता रहा

बादलों के कफ़न ओढ कर चन्द्रमा
सो गया है निशा के बियावान में
ढूँढते ढूँढते हैं बहारे थकी
कलियाँ आईं नहीं किन्तु पहचान में
मानचित्रों में बरखा का पथ था नहीं
प्यास उगती रही रोज पनघट के घर
बुलबुलों के हुए गीत नीलाम सब
ऐसी टेढी पडी पतझडों की नजर

और जर्जर कलेंडर की शाखाओ से
सूखे पत्ते सा दिन एक झरता रहा

राकेश खण्डेलवाल
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मंदिरों की घंटियाँ
सुर के तारों से जुड़ न सकी भावना शब्द सब कंठ में छटपटाते रहे

पंथ पर था नजर को बिछाये शिशिर कोई भेजे निमंत्रण उसे प्यार का
प्रश्न लेकर निगाहें उठीं हर निमिष पर न धागा जुड़ा कोई संचार का
चाँदनी का बना हमसफ़र हर कोई शेष सब ही को जैसे उपेक्ष मिली
उठ पुकारें, गगन से मिली थीं गले किन्तु सूनी रही इस नगर की गली
टुकड़े टुकड़े बिखरता रहा आस्माँ स्वप्न परवाज़ बिन छटपटाते रहे

क्षीण संचय हुआ होम करते हुए गुनगुनाई नहीं आस की बाँसुरी
मन्त्र ध्वनियाँ धुएं में विलय हो गईं भर नहीं पाई संकल्प की आँजुरी
कोई संदेस पहुँचा नहीं द्वार तक उलझी राहें सभी को निगलती रहीं
मील का एक पत्थर बनी ज़िन्दगी उम्र रफ़्तार से किन्तु चलती रही
प्यास , सावन की अगवानी करती रही मेघ आषाढ़ के घिर के आते रहे

भोर उत्तर हुई साँझ दक्षिण ढली पर न पाईं कही चैन की क्यारियाँ
स्वप्न के बीज बोये जहाँ थे कभी उग रहीं हैं वहाँ सिर्फ़ दुश्वारियाँ
बिम्ब खोये हैं दर्पण की गहराई में और परछाईं नजरें चुराने लगी
ताकते हर तरफ कोइ दिखता नहीं कैसी आवाज़ है जो बुलाने लगी
\कोई सूरत न पहचान में आ सकी रंग भदरंग हो झिलमिलाते रहे

हमने भेजे थे अरमान जिस द्वार पर बंद निकला वही द्वार उम्मीद का
कोई आकर मिला ही नहीं है गले अजनबी बन के मौसम गया ईद का
सलवटों में हथेली की खोती रहीं भाग्य ने जो रँगी चन्द राँगोलियाँ
हमने माणिक समझ कर बटोरा जिन्हें वो थीं टूटी हुई काँच की गोलियाँ
राह को भूल वो खो न जाये कहीं सूर्य के पथ में दीपक जलाते रहे
है सुनिश्चित कि सूरज उगे पूर्व में आज तक ये बताया गया था हमें
और ढलना नियति उसकी, पश्चिम में है ज़िन्दगी भर सिखाया गया था हमें
पर दिशाओं ने षडयंत्र ऐसे रचे भूल कर राह सूरज कहीं खो गया
एक आवारा बादल भटकता हुआ लाश पर दिन की, दो अश्रु, आ रो गया
और हम देवताओं की मरजी समझ घंटियाँ मंदिरों की बजाते रहे

राकेश खंडेलवाल
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मन का आँगन

भित्तिचित्र से सजी अजन्ता, घिरा घटाओं से है सावन
और तुम्हारी छवि से चित्रित, मीत मेरे मन का है आँगन
संध्या की निंदियारीं पलकें, ऊषा की पहली अँगड़ाई
दोपहरी की धूप गुनगुनी, रजनी की कोमल जुन्हाई
बगिया में भ्रमरों का गुंजन, नदिया की धारा की कल कल
गंधों की बढ़ती मादकता, पुरबा की अठखेली चंचल
बन कर गीत तुम्हारे गूँजे, मेरे मन पर ओ जीवन-धन
और तुम्हारी छवि से चित्रित मीत मेरे मन का है आँगन
बरगद पर लहराते धागे, जले दीप पीपल के नीचे
सर्पीली भटकी पगडंडी दिशा दिशा में आँखें मीचे
पनिहारिन के पग की पायल, संध्या के नयनों का काजल
फूल फूल पर दस्तक देता तितली का सतरंगा आँचल
राकेश खंडेलवाल
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प्राची और प्रतीची
जो पथ सन्मुख था उस पथ की मंज़िल भी पथ बनी हुई थी
इसीलिये उस पथ के पथ से मेरा हर पग दूर रह गया
अंझ्धकार की काली सत्ता, निगल गई सूरज के वंशज
प्राची और प्रतीची दोनों में बिखरा सिन्दूर रह गया

अस्ताचल के राजमार्ग पर बैठे थे कहार ले डोली
सपनों की चूनरी सजाकर, काढ सितारों की राँगोली
किन्तु न दुल्हन बनी साँझ ने आकरके पालकी संवारी
और रही गूँजती रूदन बन, शहनाई की मीठी बोली

झंझावातें लेकर पतझड आया था अगवानी करने
और गुलाबों सा हर सपना, उससे टकरा चूर रह गया

अंबर की वीथि में भटकी, निशा पहन पूनम की साडी
आँचल का इक छोर थाम कर साथ चला चन्द्रमा अनाडी
नक्षत्रों के गजरे उसके बहा ले गई नभ की गंगा
उल्काओं से घिरी ज्योत्सनाओं की नव- विकसित फुलवाडी

चौराहे पर धूमकेतुओं की टोली थी राह रोकती
जो निकला आवारा केवल वह तारा मशहूर रह गया

यादों की घाटी का सूनापन रह रह सन्नाटा पीता
लेकिन फिर भी उजडे पनघट जैसा ही रह जाता रीता
भटकी पगडंडी रह रह कर राह पूछती है नक्शों से
बिछा समय की चौसर बाज़ी खेल रही विधि बन परिणीता

आईने के सन्मुख दीपक जला जला कर थकीं उंगलियाँ
चमक न पाया चेहरा, केवल बुझा बुझा सा नूर रह गया
राकेश खंडेलवाल
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चूनरी चाँदनी कीस्वप्न आँखें सजाती रहीं रात भर,चाँदनी रात की चूनरी के तले
पर उगी भोर की दस्तकों से सभी, बन के सिन्दूर नभ में बिखरते रहे

तारे पलकों पे बैठे रहे रात भर, आने वालों का स्वागत सजाये हुए
ओस बन कर टपकते रहे राग सब,चाँद के होंठ पर गुनगुनये हुए
थाम कर चाँदनी की कलाई हवा, मन के गलियारे में नृत्य करती रही
कामना एक बन आस्था चल पड़ी आस पी के मिलन की लगाये हुए

सात घोड़ों के रथ बैठ आई उषा, एक सन्दूकची थाम कर हाथ में
जिसके दर्पण की परछाइयाँ थाम कर रंग सातों गगन पर सँवरते रहे

पग की पाजेब के बोल कुछ बोल कर, थे गुँजाते रहे एक चौपाल को
रूख कड़े घंटियों के सुरों के मगर, न सफ़ल हो जगा पाये घड़ियाल को
थरथरा थरथरा दीप तुलसी तले,साँझ से पूर्व ही थक गया सो गया
रह गया एक पीपल अचंभित खड़ा, होना क्या था मगर क्या से क्या हो गया

रोज लाता रहा दिन, कभी साँझ ने , अपने केशों में गजरे लगाये नहीं
मोतिया जूही चंपा चमेली सभी,रोज कलियों की तरह चटखते रहे
राकेश खंडेलवाल
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मेंहदी सिसकती ऱी

नाम तुमने कभी मुझसे पूछा नहीं
कौन हूँ मैं, ये मैं भी नहीं जानता
आईने का कोई अक्स बतलायेगा
असलियत क्या मेरी, मैं नहीं मानता
मेरे चेहरे पे अनगिन मुखौटे चढ़े
वक्त के साथ जिनको बदलता रहा
मैने भ्रम को हकीकत है माना सदा
मैं स्वयं अपने खुद को हूँ छलता रहा

हाथ आईं नहीं मेरे उपलब्धियाँ
बालू मुट्ठी से पल पल खिसकती रही

बीन के राग को छेड़ने के लिये
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही

यज्ञ करते हुए हाथ मेरे जले
मंत्र भी होंठ को छू न पाये कभी
आहुति आहुति स्वप्न जलते रहे
दॄष्टि के पाटलों पे न आये कभी
कामनायें ॠचाओं में उलझी रहीं
वेद आशा का आव्हान करते रहे
उम्र बन कर पुरोहित छले जा रही
ज़िन्दगी होम, हम अपनी करते रहे

दक्षिणा के लिये शेष कुछ न बचा
अश्रु की बून्द आँजुर में भरती रही

बीन के राग को छेड़ने के लिये
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही
एक बढ़ते हुए मौन की गोद में
मेरे दिन सो गये मेरी रातें जगीं
एक थैली में भर धूप, संध्या मेरे
द्वार पर आके करती रही दिल्लगी
होके निस्तब्ध हर इक दिशा देखती
दायरों में बँधा चक्र चलता रहा
किससे कहते सितारे हॄदय की व्यथा
चाँद भी चाँदनी में पिघलता रहा

एक आवारगी लेके आगोश में
मेरे पग, झाँझरों सी खनकती रही

एक सूरज रहा मुट्ठियों में छुपा
रोशनी दीप के द्वार ठहरी रही
धुन्ध के गांव में रास्ता ढूंढती
भोर से साँझ तक थी दुपहरी रही
मौन आईना था कुछ भी बोला नहीं
प्रश्न पर प्रश्न पूछा करी हर नजर
साफ़ दामन बचा कर निकलती रही
अजनबीबन के हर एक राहे गुजर

और स्वर की नई कोंपलों के लिये
इक विरहिणी बदरिया बरसती रही

रूप मुझसे खफ़ा होके बैठा रहा
वस्ल की एवजों में जुदाई मिली
मैने चाहा था भर लूँ गज़ल बाँह में
किन्तु अतुकान्त सी इक रूबाेई मिली
मेरा अस्तित्व है मात्रा की तरह
अक्षरों के बिना जो अधूरी रही
मैं चला हूँ निरन्तर सफ़र में, मगर
रोज बढ़यी हुई पथ की दूरी रही

काल ने कुछ न छोड़ा किसी हाट में
साँस टूटी हुई हाथ मलती रही

गूँज पाई नहीं गूँज घड़ियाल की
मंदिरों में नहीं हो सकी आरती
कोई दीपक सिराने यहाँ आयेगा
रह गईं आस-बूटे लहर काढ़ती
बाँच पाये कथायें पुरोहित नहीं
कोई श्लोक क्रम से नहीं मिल सका
हो न पाई कभी पूर्ण आराधना
अर्चना के लिये फूल खिल न सका

एक सुकुमार गोरी किरन के लिये
प्यास भोले शलभ की मचलती रही

अर्थ विश्वास के दायरों में बंधे
सत्य को सर्वदा भ्रम में दाले रहे
मोमबत्ती जला ढूंढ़ता सूर्य था
पर अंधेरों में लिपटे उजाले रहे
प्यास सावन लिये था खड़ा व्योम में
कोई पनघट बुझाने को आया नहीं
तार पर सरगमें रोते रोते थकीं
साज ने गीत पर गुनगुनाया नहीं

और बदनामियों से डरी, मुंह छुपा
बिजली बादल के घर में कलपती रही

बीन के राग को छेड़ने के लिये
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही

राकेश खंडेलवाल
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यादों के मानसरोवर


संझवाती के दीपक की लौ के लहराते सायों में जब
धुंधले धुंधले आकारों के कुछ चिन्ह नजर आ जाते हैं
यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़कर राजहंस
उस घड़ी शाम के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं

बीते कल के चित्रों में कुछ बदलाव न कर पाती कूची
आँखों में आ लहराती है फिर एक अधूरी वह सूची
जिसमें चिन्हित पल जब हमने आशा के विरवे बोये थे
जिनके अंकुर ,बरसों बीते, प्रस्फ़ुटित नहीं हो पाते हैं

यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़ कर राजहंस
उस घड़ी शाम के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं

नजरों की खोज भटकती है मावस की सूनी रातों में
सुधियों के पत्र बिखरते हैं, साँसों के झंझावातों में
पाटल पर बनते सपनों के रंग गडमड हो कर रह जाते
जब मन की सोई झीलों में कुछ कंकर फेंके जाते हैं

यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़कर राजहन्स
उस घड़ी शाम के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं

अजनबियत जब बँध जाती है, परिचय के कोमल धागों से
जैसे सरगम का जुड़ता है नाता आवारा रागों से
उस परिचय के पथ में कोई जब ऐसा मोड़ मिला करता
जब शब्द अधर को छूने से पहले ही फिसले जाते हैं

यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़कर राजहंस
उस घड़ी शाम के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं

इतिहासों के घटनाक्रम जब, सहसा ही हो जाते जीवित
विस्तारित अंबर की सीमा, मुट्ठी में हो जाती सीमित
चेहरे पर आँसू की रेखा बन कर पगडंडी रह जाते
धूमिल से चिन्ह,धुंआसे जब कुछ और अधिक हो जाते हैं

यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़कर राजहंस
उस घड़ी साँझ के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं
राकेश खंडेलवाल
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चाँदनी जब नाम पूछे

चाँदनी जब नाम पूछे,तुम कहो हम क्या बतायें
प्रीत के ये गीत बोलो कब तलक हम गुनगुनायें

हाँ तुम्हारे कुंतलों की छाँह ने निंदिया संवारी
हाँ तुम्हारी दॄष्टि ने विधु की विभा मेरे संवारी
हाँ तुम्हारे चित्र ने साकार मेरी भावना की
और हाँ स्पर्श ने मेरे हृदय को चेतना दी

पर " अहं ब्रह्मास्मि" के वाग्जालों में फंसे हम
ज़िन्दगी पर है तुमहारा, किस तरह, अनुग्रह बतायें

शब्द ने छूकर अधर को, बोल सीखे हैं ,तुम्हारे
और पा स्पर्श, आशा के खुले हैं राज द्वारे
ओढ़नी अहसास लहराई पा इंगित तुम्हारा
अर्थ के अनुपात से अभिप्राय जुड़ता सा हमारा

पर शिराओं में संवरती शिंजिनी की झनझनाहट
से सपन रंग कर नयन में किस तरह बोलो सजायें

हाँ तुम्हारे आलते ने अल्पना के चित्र खींचे
हाँ तुम्हारे होंठ ने हैं प्यास को मधुघट उलीचे
हाँ तुम्हारी अर्चना ने दीप को सौंपी शिखायें
हाँ तुम्हारे पग-कमल से मंत्रणा करतीं दिशायें

पर क्षितिज की अलगनी पर सांझ के लटके रवि सी
साध की इस छटपटाहट को कहो कैसे मनायें
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गोकुल आवाज़ें देता है

लालायित शब्द अधर के हैं, सरगम का चुम्बन पाने को
पर तार न छिड़ते वीणा के, स्वर टूट गले में जाता है

ओढ़े खामोशी बैठे हैं, मन की कुटिया घर का अँगना
पायल से रूठा लगता है, गुमसुम है हाथों का कँगना
नयनों की सेज सजी, पल पल आमंत्रित करती रहती है
पर मिलन-यामिनी को करने साकार, नहीं आता सपना

अँगड़ाई लेते हुए हाथ आतुर हैं कुछ क्षण पकड़ सकें
द्रुत-गति से चलता समय मगर, कुछ हाथ नहीं आ पाता है

अंबर की सूनी बाहों में बादल भी एक नहीं दिखता
पदचिन्ह बिना सूनी तन्हा, सागर तट बिछी हुई सिकता
मन का वॄंदावन सूना है, कालिन्दी के फिसलन वाले
घाटों पर एक निमिष को भी, भावों का पांव नहीं टिकता

गोकुल आवाज़ें देता है, हरकारे भेजे गोवर्धन
पर बढ़ा कदम जो मथुरा को, अब लौट न वापस आता है

दीपक की ज्योति निगल कर तम फैलाता है अपने डैने
सन्ध्या प्राची की दुल्हन को पहनाती काजल से गहने
बादल के कफ़न ओढ़ चन्दा, सोता यौवन की देहरी पर
मेंहदी के बोल मौन रहते, पाते हैं कुछ भी न कहने

आँजुर की खुली उंगलियो से रिसते संकल्पों के जल सा
प्रत्याशित सौगंधों का क्षण, फिर एक बार बह जाता है .
राकेश खंडेलवाल
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बदलती रही


हम हुए अजनबी खुद से भी, आपकी
सिर्फ़ तस्वीर ही बस बदलती रही

आईने की परेशानियों का सबब
क्या मुखौटे थे मेरे या मैं खुद ही था
अक्स जिनको दिखाता रहा आईना
एक कोई भी उनमें से मेरा न था
अक्स के अक्स का अक्स महसूसती
अपने ही अक्स में आईने की नजर
बिम्ब कितने प्रतीक्षित रहे मोड़ पर
खत्म हो जाये असमंजसों का सफ़र

इक ऊहापोह में थी उलझ रह गई
रश्मियाँ बर्फ़ जैसे पिघलती रही

गांव की चंद पगडंडियो< के सिरे
आँख मलते हुए स्वप्न बुनते रहे
फड़फड़ाते हुए पॄष्ठ इतिहास के
इक भविष्यत को रंगीन करते रहे
काल के चक्र से हाथ की रेख का
न समन्वय हुआ एक पल के लिये
धागे बाँधे सदा बरगदों के तले
मन्नतों के मगर जल न पाये दिये

और समय की गुफ़ा में किरण आस की
रास्ता ढूँढ़ती बस भटकती रही

हम अभी तक खड़े हैं उसी मोड़ पर
तुम जहाँ थे रूके एक पल के लिये
मुट्ठियों में हैं अवशेष, शपथों के जो
थीं उठाईं गई उम्र भर के लिये
दॄष्टि का मेरा आकाश सिमटा हुआ
कुछ न दिख पाता इक दायरे के परे
दीप थाली में नजरें चुराता रहा
मंत्र भी प्रार्थना के हैं सहमे डरे

शेष बाकी नहीं गर्द भी राह में
सीटियाँ बस हवाओं की बजती रहीं

नित बदलते हुए विश्व चलता रहा
कोई ठहराव गति में नहीं आ सका
ज़िन्दगी दौड़ते दौड़ते चल रही
एक पल भी नहीं हाथ में आ सका
भावनायें बिछी रह गईं राह सी
और संबंध पहियों से चलते रहे
आस्था ने उगाये जो सूरज सभी
भोर को सांझ करके निगलते रहे

आप भी साथ बदलें हमारे यही
साध बस एक सीने में पलती रही

हम बदल कर हुए अजनबी, आपकी
सिर्फ़ तस्वीर ही बस बदलती रही
तुमने जिसको सुना गूँज थी मौन कीजो कि उजड़ी बहारों में छुप रह गईआगमन की प्रतीक्षा मदन की लियेकोंपलें आँख खोले हुए रह गईंटूटे शीशे की आवाज़ संगीत बनलहरियों पे हवा की बिखरती रही
गंध जो संदली थी हवा में उड़ी
पेड़ की पत्तियों में सिमटती रही
इक नजर में न बदली, मगर दूसरीमें वो तस्वीर फिर भी बदलती रही
पत्थरों में उगी नागफ़नियां रहीं
आप भ्रम से उन्हें फूल कहते रहेस्रोत सपनों के खंडहर से निकले हुएनैन के निर्झरों से टपकते रहेआईने पर जमी गर्द में आईनाबिम्ब अपना नहीं देख पाया कभीहाँ नजर के भरम में उलझते हुएतुम रहे ,वे रहे और रहे हैं सभीएक वह मिथ्या भ्रम तोड़ने के लियेकोशिशें लेखनी नित्य करती रही
हम बदल कर हुए अजनबी आपकीसिर्फ़ तस्वीर ही इक बदलती रही
रात जैसे तो मन के अंधेरे रहेऔर चेतन को संशय हैं घेरे रहेहो गईं बंद पत्तों की जब जालियाँरोशनी क्या छनी और बरसात क्यामॄग तो तॄष्णा के पीछे भटकता रहाऔर ये सत्य मन में अटकता रहा
क्यों छलावों में लिपटी रही ज़िन्दगी
स्वप्न क्यों हर, कली सा चटकता रहा
कौन सा है निमित साथ लेकर जिसेउम्र धड़कन से बंध कर ढुलकती रही
हम हुए अजनबी खुद से भी आपकीसिर्फ़ तस्वीर ही इक बदलती रही
राकेश
ooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooo

चित्र मावस का था
राहें ठोकर लगाती रहीं हर घड़ी
और हम हर कदम पर संभलते रहे
कट रही ज़िन्दगी लड़खड़ाते हुए
स्वप्न बनते संवरते बिगड़ते रहे

चाह अपनी हर इक टंग गई ताक पर
मन में वीरानगी मुस्कुराती रही
आस जो भी उगी भोर आकाश में
साँझ के साथ मातम मनाती रही
अधखुले हाथ कुछ भी पकड़ न सके
वक्त मुट्ठी से पल पल खिसकता रहा
शब्द के तार से जुड़ न पाया कभी
स्वर अधूरा गले में सिसकता रहा

कोई भी न मिला मौन जो सुन सके
सुर सभी होठ पर आ बिखरते रहे

जेठ गठजोड़ मधुबन के संग कर रहा
कोंपलें सब उमीदों की मुरझा गईं
टूट कर डाल से उड़ गये पात सी
आस्थायें हवाओं में छितरा गईं
देह चन्दन हुई, सर्प लिपटे रहे
मन के मरुथल में उगती रही प्यास भी
कल्पनाओं के सूने क्षितिज पर टंगा
पास आया न पल भर को मधुमास भी

हाथ में तूलिका बस लिये एक हम
चित्र मावस का था, रंग भरते रहे

भोर को पी गई इक किरण सूर्य की
साँझ दीपक बनी धार में बह गई
टिमटिमाते सितारों की परछाईयाँ
रात की ओढ़नी पर टँकी रह गईं
प्यास हिरना की बनकर भटकते सपन
नींद सो न सकी एक पल के लिये
अर्थ पाने की हम कोशिशें कर रहे
जो बुजुर्गों ने आशीष हमको दिये

मान्यताओं के घाटों पे काई जमी
हम कदम दर कदम बस फिसलते रहे
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15 comments:

Anonymous said...

मार डाला !

Shardula said...

Re:बांसुरी
========
भाग्य ने द्वार खोला नहीं कोई भी
दस्तकें देते दोनों हथेली छिली
--बहुत सुन्दर प्रयोग !
===
आसेब का चक्र ??
--इसका क्या अर्थ हुआ?
===
वक्त के ज्योतिषी ने कहा, आपके
आगमन से ही सुधरेगी यह ग्रहदशा
--बहुत cute:)

सादर

Shardula said...

Re: मौसम
मन करता है इन पंक्तियों को गले लगा लें और संभाल कर रख लें । एकदम दिल के पास रखने वाली कविता !
-------------
"एक बासी थकन लेती अन्गडाईयाँ
बैठे बैठे थकी,ऊब कर सो गई
सीढियों में ही अटके सितारे रहे
छत पे पहुँचे नहीं और सुबह हो गई"

"हो के भयभीत, पुरबा, चपल दामिनी
के कडे तेवरों से, कहीं छुप गई"

"और मन को मसोसे छुपा कक्ष में
एक सपना अधूरा सिसकता रहा"

"था छुपा नभ पे बिखरी हुई राख में
सूर्य ने अपना चेहरा दिखाया नहीं"

"झाँकती ही रही आड चिलमन की ले
चौथी मन्ज़िल पे बैठी हुई थी हवा"

"मानचित्रों में बरखा का पथ था नहीं
प्यास उगती रही रोज पनघट के घर"

"और जर्जर कलेंडर की शाखाओ से
सूखे पत्ते सा दिन एक झरता रहा"

Shardula said...

Re: मंदिरों की घंटियाँ
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"टुकड़े टुकड़े बिखरता रहा आस्माँ स्वप्न परवाज़ बिन छटपटाते रहे"
"मील का एक पत्थर बनी ज़िन्दगी उम्र रफ़्तार से किन्तु चलती रही"

अद्भुत पंक्तियाँ !!
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"भोर उत्तर हुई साँझ दक्षिण ढली पर न पाईं कही चैन की क्यारियाँ
स्वप्न के बीज बोये जहाँ थे कभी उग रहीं हैं वहाँ सिर्फ़ दुश्वारियाँ
बिम्ब खोये हैं दर्पण की गहराई में और परछाईं नजरें चुराने लगी
ताकते हर तरफ कोइ दिखता नहीं कैसी आवाज़ है जो बुलाने लगी "

अति सुन्दर छ्न्द !
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"कोई आकर मिला ही नहीं है गले अजनबी बन के मौसम गया ईद का"

सुभान अल्लाह !!
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"है सुनिश्चित कि सूरज उगे पूर्व में आज तक ये बताया गया था हमें
और ढलना नियति उसकी, पश्चिम में है ज़िन्दगी भर सिखाया गया था हमें
पर दिशाओं ने षडयंत्र ऐसे रचे भूल कर राह सूरज कहीं खो गया
एक आवारा बादल भटकता हुआ लाश पर दिन की, दो अश्रु, आ रो गया
और हम देवताओं की मरजी समझ घंटियाँ मंदिरों की बजाते रहे"

रचयिता को नमन !!

Shardula said...

Re:मन का आँगन
"संध्या के नयनों का काजल"
सुन्दर प्रयोग !

Shardula said...

Re:प्राची और प्रतीची
"जो पथ सन्मुख था उस पथ की मंज़िल भी पथ बनी हुई थी
इसीलिये उस पथ के पथ से मेरा हर पग दूर रह गया"
क्या अर्थ है, क्या अलंकार है ! वाह!
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"अंबर की वीथि में भटकी, निशा पहन पूनम की साडी
आँचल का इक छोर थाम कर साथ चला चन्द्रमा अनाडी"
बहुत सुन्दर ! बहुत सुन्दर !
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"चौराहे पर धूमकेतुओं की टोली थी राह रोकती
जो निकला आवारा केवल वह तारा मशहूर रह गया"
सुन्दर और सही बात !

Shardula said...

re:चूनरी चाँदनी की
"तारे पलकों पे बैठे रहे रात भर, आने वालों का स्वागत सजाये हुए
ओस बन कर टपकते रहे राग सब,चाँद के होंठ पर गुनगुनये हुए
थाम कर चाँदनी की कलाई हवा, मन के गलियारे में नृत्य करती रही
कामना एक बन आस्था चल पड़ी आस पी के मिलन की लगाये हुए"
आप कैसे लिख पातें हैं इतना सुन्दर ! वो भी स्त्री मन के भाव !
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"रोज लाता रहा दिन, कभी साँझ ने , अपने केशों में गजरे लगाये नहीं"
अति सुन्दर !

Shardula said...

RE:मेंहदी सिसकती रही

"कौन हूँ मैं, ये मैं भी नहीं जानता
आईने का कोई अक्स बतलायेगा
असलियत क्या मेरी, मैं नहीं मानता
मेरे चेहरे पे अनगिन मुखौटे चढ़े
वक्त के साथ जिनको बदलता रहा
मैने भ्रम को हकीकत है माना सदा
मैं स्वयं अपने खुद को हूँ छलता रहा"

तो यहाँ से प्रदुर्भाव हुआ है आप का परिचय देती पंक्तियों का । ये तो फिर बहुत महत्वपूर्ण कविता होगी आपके लिये ।
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"यज्ञ करते हुए हाथ मेरे जले
मंत्र भी होंठ को छू न पाये कभी
आहुति आहुति स्वप्न जलते रहे
दॄष्टि के पाटलों पे न आये कभी
कामनायें ॠचाओं में उलझी रहीं
वेद आशा का आव्हान करते रहे
उम्र बन कर पुरोहित छले जा रही
ज़िन्दगी होम, हम अपनी करते रहे

दक्षिणा के लिये शेष कुछ न बचा
अश्रु की बून्द आँजुर में भरती रही"

" एक बढ़ते हुए मौन की गोद में
मेरे दिन सो गये मेरी रातें जगीं
एक थैली में भर धूप, संध्या मेरे
द्वार पर आके करती रही दिल्लगी
होके निस्तब्ध हर इक दिशा देखती
दायरों में बँधा चक्र चलता रहा
किससे कहते सितारे हॄदय की व्यथा
चाँद भी चाँदनी में पिघलता रहा

एक आवारगी लेके आगोश में
मेरे पग, झाँझरों सी खनकती रही

एक सूरज रहा मुट्ठियों में छुपा
रोशनी दीप के द्वार ठहरी रही
धुन्ध के गांव में रास्ता ढूंढती
भोर से साँझ तक थी दुपहरी रही
मौन आईना था कुछ भी बोला नहीं
प्रश्न पर प्रश्न पूछा करी हर नजर
साफ़ दामन बचा कर निकलती रही
अजनबीबन के हर एक राहे गुजर

और स्वर की नई कोंपलों के लिये
इक विरहिणी बदरिया बरसती रही"
"काल ने कुछ न छोड़ा किसी हाट में
साँस टूटी हुई हाथ मलती रही"

"गूँज पाई नहीं गूँज घड़ियाल की
मंदिरों में नहीं हो सकी आरती
कोई दीपक सिराने यहाँ आयेगा
रह गईं आस-बूटे लहर काढ़ती
बाँच पाये कथायें पुरोहित नहीं
कोई श्लोक क्रम से नहीं मिल सका
हो न पाई कभी पूर्ण आराधना
अर्चना के लिये फूल खिल न सका

एक सुकुमार गोरी किरन के लिये
प्यास भोले शलभ की मचलती रही

अर्थ विश्वास के दायरों में बंधे
सत्य को सर्वदा भ्रम में दाले रहे
मोमबत्ती जला ढूंढ़ता सूर्य था
पर अंधेरों में लिपटे उजाले रहे
प्यास सावन लिये था खड़ा व्योम में
कोई पनघट बुझाने को आया नहीं
तार पर सरगमें रोते रोते थकीं
साज ने गीत पर गुनगुनाया नहीं

और बदनामियों से डरी, मुंह छुपा
बिजली बादल के घर में कलपती रही

बीन के राग को छेड़ने के लिये
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही"
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शायद कुछ समझ आ रहा है.
पूरा गीत याद करने लायक ! अद्भुत !

Shardula said...

उफ्फ्! ऊपर वाले गीत में देख रही हूँ, लगभग पूरा ही गीत वाहवाही में दोहरा दिया मैंने ! गलती हो गई, पर क्या करूँ सब कुछ ही अत्यंत सुन्दर था । अब आगे से ध्यान रखुँगी :)
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Re: यादों के मानसरोवर
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"बीते कल के चित्रों में कुछ बदलाव न कर पाती कूची
आँखों में आ लहराती है फिर एक अधूरी वह सूची"
वाह ! क्या सही बात कही है !

"पाटल पर बनते सपनों के रंग गडमड हो कर रह जाते
जब मन की सोई झीलों में कुछ कंकर फेंके जाते हैं"
अति सुन्दर शब्द चित्र ! लग रहा है देख पा रहें है इन पंक्तियों को! कोई झील के किनारे उदास बैठे-बैठे एक एक कंकर उठा के फेंक रहा है, और रंग-रंग के प्रतिबिम्ब एक दूसरे में मिलते जा रहे हैं, बदलते जा रहे हैं। इस से एक प्यारी सी अंग्रेजी quotation याद आ गयी : "There's a ripple effect in everything we do, what you do touches me , what I do touches you " है ना सुन्दर बात !
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अजनबियत जब बँध जाती है, परिचय के कोमल धागों से
जैसे सरगम का जुड़ता है नाता आवारा रागों से
वाह! वाह! कोई आप से सीखे उपमाएं देना !
सादर शार्दुला

Shar said...

RE: चाँदनी जब नाम पूछे

हाँ तुम्हारी अर्चना ने दीप को सौंपी शिखायें
पर क्षितिज की अलगनी पर सांझ के लटके रवि सी
साध की इस छटपटाहट को कहो कैसे मनायें

Shardula said...

RE:गोकुल आवाज़ें देता है
"अँगड़ाई लेते हुए हाथ आतुर हैं कुछ क्षण पकड़ सकें"
वाह!
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"पदचिन्ह बिना सूनी तन्हा, सागर तट बिछी हुई सिकता
मन का वॄंदावन सूना है, कालिन्दी के फिसलन वाले
घाटों पर एक निमिष को भी, भावों का पांव नहीं टिकता"
अद्भुत !! क्या सोच है !
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"आँजुर की खुली उंगलियो से रिसते संकल्पों के जल सा
प्रत्याशित सौगंधों का क्षण, फिर एक बार बह जाता है "
हाय !!

Shardula said...

RE:बदलती रही
"अक्स के अक्स का अक्स महसूसती
अपने ही अक्स में आईने की नजर
बिम्ब कितने प्रतीक्षित रहे मोड़ पर
खत्म हो जाये असमंजसों का सफ़र"
"और समय की गुफ़ा में किरण आस की
रास्ता ढूँढ़ती बस भटकती रही"
"भावनायें बिछी रह गईं राह सी
और संबंध पहियों से चलते रहे"
"हो गईं बंद पत्तों की जब जालियाँ
रोशनी क्या छनी और बरसात क्या"
"कौन सा है निमित साथ लेकर जिसे
उम्र धड़कन से बंध कर ढुलकती रही
हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी
सिर्फ़ तस्वीर ही इक बदलती रही"
अद्भुत !! हाय ! क्या रह गया अब कहने को !!

Shardula said...

re:बदलती रही
"अक्स के अक्स का अक्स महसूसती
अपने ही अक्स में आईने की नजर
बिम्ब कितने प्रतीक्षित रहे मोड़ पर
खत्म हो जाये असमंजसों का सफ़र"
"और समय की गुफ़ा में किरण आस की
रास्ता ढूँढ़ती बस भटकती रही"
"हो गईं बंद पत्तों की जब जालियाँ
रोशनी क्या छनी और बरसात क्या"
"कौन सा है निमित साथ लेकर जिसे
उम्र धड़कन से बंध कर ढुलकती रही
हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी
सिर्फ़ तस्वीर ही इक बदलती रही"

PERIOD !!

Shardula said...

RE:चित्र मावस का था
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"कोई भी न मिला मौन जो सुन सके"
"देह चन्दन हुई, सर्प लिपटे रहे
मन के मरुथल में उगती रही प्यास भी"
"भोर को पी गई इक किरण सूर्य की"
"प्यास हिरना की बनकर भटकते सपन
नींद सो न सकी एक पल के लिये
अर्थ पाने की हम कोशिशें कर रहे
जो बुजुर्गों ने आशीष हमको दिये

मान्यताओं के घाटों पे काई जमी
हम कदम दर कदम बस फिसलते रहे"
Wah! sunder hai!

mithileshwamankar said...

आज पहली बार इस ब्लॉग पर आया हूँ
बेहतरीन गीत पढ़कर झूम गया हूँ
हर गीत की दो दो पंक्तियाँ अपने आप में एक पूर्ण रचना लग रही है
अशआर के संकलन से ग़ज़ल बनते देखी थी
मगर गीत बनते आपकी सर्जना में देख रहा हूँ
पढ़कर आनंद की आनंद
इस सर्जना के लिए बधाई धन्यवाद और साधुवाद

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...