तम की सत्ता से लड़ने को, हाथों में मशाल हो न हो
एक दीप है साथ हमारे बस इतना विश्वास बहुत है
अंधियारे ने किये हुए हैं घड़ियों से कितने गठबन्धन
आंखों की क्यारी में बोये हों ला लाकर कितने क्रन्दन
उलझ्हा दी हों गांठें रचकर सपनों के कोमल धागों में
सुलगा हुआ ह्रदय महका है, लेकिन फिर भी बन के चंदन
साथ हमारा दे या न दे, लम्बी एक उमर की डोरी
आशा के हिमगिरि रचने को एक अकेली सांस बहुत है
करने भ्रमित बनाये हो पथ, पग पग पर अनगिन चौराहे
पत्थर सभी मील के पी लें, पथचिन्हों के अक्षर चाहे
व्यूहों में घिर कर रुकते हैं लेकिन कहाँ हवा के झोंके
सब अवरोध छिन्न हो जाते पल में बने रुई के फ़ाहे
धाराओं के हर प्रवाह पर बाँध बने हों चाहे जितने
सावन नया बुला लाने को बस अधरों की प्यास बहुत है
बिखरे हों ठोकर खा खा कर कितने ही अक्षत हाथों के
पंखुड़ियों से बिखराये हों, सपने पूनम की रातों के
फिर भी बीज सॄजन के बोने का निश्चय तो अटल रहा है
जुड़ते आये विश्वासों से नित नूतन बंधन नातों के
छंद भेद के नियम भले ही कितने भी प्रपंच रच डालें
नई व्याकरण रच देने को केवल इक अनुप्रास बहुत है
एक दीप है साथ हमारे बस इतना विश्वास बहुत है
अंधियारे ने किये हुए हैं घड़ियों से कितने गठबन्धन
आंखों की क्यारी में बोये हों ला लाकर कितने क्रन्दन
उलझ्हा दी हों गांठें रचकर सपनों के कोमल धागों में
सुलगा हुआ ह्रदय महका है, लेकिन फिर भी बन के चंदन
साथ हमारा दे या न दे, लम्बी एक उमर की डोरी
आशा के हिमगिरि रचने को एक अकेली सांस बहुत है
करने भ्रमित बनाये हो पथ, पग पग पर अनगिन चौराहे
पत्थर सभी मील के पी लें, पथचिन्हों के अक्षर चाहे
व्यूहों में घिर कर रुकते हैं लेकिन कहाँ हवा के झोंके
सब अवरोध छिन्न हो जाते पल में बने रुई के फ़ाहे
धाराओं के हर प्रवाह पर बाँध बने हों चाहे जितने
सावन नया बुला लाने को बस अधरों की प्यास बहुत है
बिखरे हों ठोकर खा खा कर कितने ही अक्षत हाथों के
पंखुड़ियों से बिखराये हों, सपने पूनम की रातों के
फिर भी बीज सॄजन के बोने का निश्चय तो अटल रहा है
जुड़ते आये विश्वासों से नित नूतन बंधन नातों के
छंद भेद के नियम भले ही कितने भी प्रपंच रच डालें
नई व्याकरण रच देने को केवल इक अनुप्रास बहुत है
10 comments:
तम की सत्ता से लड़ने को, हाथों में मशाल हो न हो
एक दीप है साथ हमारे बस इतना विश्वास बहुत है
-बस, इतना काफी है, जबरदस्त बात कही है आपने.. अनुपम रचना!!
नई व्याकरण रच देने को केवल इक अनुप्रास बहुत है..रच तो दी है आपने ..!!
waah
waah
छंद भेद के नियम भले ही कितने भी प्रपंच रच डालें
नई व्याकरण रच देने को केवल इक अनुप्रास बहुत है
_________bahut khoob !
विश्वास से शक्तिशाली
कोई नहीं है।
बहुत बेहतरीन रचना!!
उलझा दी हों गांठें ... एक अकेली सांस बहुत है
सावन नया बुला लाने को ...
बिखरे हों ठोकर खा ... नूतन बंधन नातों के
***
प्रणाम स्वीकारें!
राकेश जी ,
बहुत समय से आप की रचनाएँ पढ़ रही हूँ । हर रचना एक से एक बढ़ कर है । आज के गीत ने अन्तर्तम छू लिया , दिशाएँ सुगन्धित हो गईं ।
आशावादी भावनायों की सुन्दर अभिव्यक्ति । बधाई।
शशि पाधा
bhai ji,jabardast kavita ki shashakt abhivyakti.
Wonderful only.kya chand,laya,matra,abhivyakti,bhasha,bus,maza aagaya.
Meri or se mere pranam sweekariye.
Itni vyast smaya mey bhi tum itne pushp khila lete ho/
sach kahta hoon in geeton se parvat kai hila dete ho//
aapka hi
dr.bhoopendra
धाराओं के हर प्रवाह पर बाँध बने हों चाहे जितने
सावन नया बुला लाने को बस अधरों की प्यास बहुत है
Ab kya kahun....
Apratim !!!!
Aap aise hi sundar rachnaon se itihaas rachte rahen,sahity ko samriddhi dete rahen,yahi ishwar se prarthna hai..
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