आस की डोरियाँ

पंथ पर ज़िन्दगी के नये मोड़ पर
एक दीपक जला है नया साध का
याद के इन्द्रधनुषी सपन, ज्योति की
हर किरण सातरंगीं बनाने लगे

राह में जितने मुझको मिले हमसफ़र
उनका अपनत्व जीने का विश्वास है
योजनों दूर मुझसे रहे हों भले
मन की अँगनाई में उनका आवास है
भावना के पखेरू बने वे कभी
मेरे मानस के आकाश पर आ गये
और अनगिन उमंगें लिये बाँह में
द्वार पर मेघ-मल्हार आ गा गये

उनका पावन परस छेड़ता तार है
मन की सारंगियों से मधुर साज के
स्वर्ण के इक कलश से झरी ओस से
भोर प्राची में जैसे नहाने लगे

डगमगाते कदम का सहारा बने
वे बने हैंदिशा राह जब खो गई
बन के बादल सा कालीन पथ में बिछे
राह कुंठा से जब कंटकी हो गई
ढल गई सांझ जब, बन गये ज्योत्सना
रात में चाँद बन जगमगाने लगे
वे निकटतम रहे हैं, जो मेरे सदा
आज नज़दीक कुछ और आने लगे

सांझ चौपाल पर दीप इक बाल कर
अपनी स्मॄतियों की चादर बिछाये हुए
चंद अनुभूतियों की सुरा ढाल कर
होंठ फिर नाम वे गुनगुनाने लगे

कहकहों के निमंत्रण मिले हैं कभी
तो मिली थीं कभी अश्रु की पातियाँ
यज्ञ की ज्वाल से दीप पाये कभी
और पाईं कभी बुझ चुकी बातियाँ
मेघ झूला झुलाते रहे हैं कभी
फूल गाते रहे गंध की लोरियाँ
तो कभी उंगलियाँ छटपटाती रहीं
बाँध वट पर सकें आस की डोरियाँ

आज संतोष से भर गया मनकलश
आपके स्नेह की पा बरसती सुधा
हर्ष-अतिरेक स्वर पी गया कंठ का
नैन में आ निमिष छलछलाने लगे

राकेश खंडेलवाल
१८ मई २००७

8 comments:

Anonymous said...

आपके बिम्ब अद्भुत होते हैं भाई! वाह!

Udan Tashtari said...

सचमुच, कल्पनाशीलता का अदभुत नमूना.

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर कल्पना है आपकी, बहुत सुन्दर रचना भी ।
घुघूती बासूती

सुनीता शानू said...

राकेश जी बहुत अच्छा लिखते है आप हम इस काबिल नही की आपकी रचना पर टिप्पणी कर पाएँ..बस आपके लिए दुआएँ ही दे सकते है कि आप गीत सम्राट है और हमेशा रहें...आपका हर गीत दिल को छू जाने वाला होता है..बस आशीर्वाद दिजिये हम भी आपकी तरह कुछ मुकाम पा सकें...

सुनीता चोटिया(शानू)

Dr.Bhawna Kunwar said...

मेघ झूला झुलाते रहे हैं कभी
फूल गाते रहे गंध की लोरियाँ
तो कभी उंगलियाँ छटपटाती रहीं
बाँध वट पर सकें आस की डोरियाँ

आज संतोष से भर गया मनकलश
आपके स्नेह की पा बरसती सुधा
हर्ष-अतिरेक स्वर पी गया कंठ का
नैन में आ निमिष छलछलाने लगे

बहुत भावपूर्ण भी और बहुत सुंदर उपमाओं से सज़ी हुई इस रचना के लिये राकेश जी को बहुत-बहुत बधाई।

राकेश खंडेलवाल said...

समीरजी, अनूपजी, सुनीताजी, घुघूतीजी तथा भावनाजी.

आभारी हूँ आपका मेरे अनुभूति की अभिव्यक्ति को सराहने का

Mohinder56 said...

राकेश जी,

आस निरास के झूले मेँ झूलते मनोभावोँ का सुन्दर चित्रण किया है आप ने.

कहकहों के निमंत्रण मिले हैं कभी
तो मिली थीं कभी अश्रु की पातियाँ
यज्ञ की ज्वाल से दीप पाये कभी
और पाईं कभी बुझ चुकी बातियाँ
मेघ झूला झुलाते रहे हैं कभी
फूल गाते रहे गंध की लोरियाँ
तो कभी उंगलियाँ छटपटाती रहीं
बाँध वट पर सकें आस की डोरियाँ

रंजू भाटिया said...

आज आपका लिखा पढ़ के आपको गुरु जी कहने का दिल हो रहा है
आपक लफ्ज़ ख़ुद में गुम कर लेते हैं ...बहुत ही सुंदर लिखा है

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