चेतना जी कन्दराओं में



चेतना की गहन कन्दरा में छिपी
मेरी अनुभूतियाँ छटपटाती रहीं
और अभिव्यक्तियाँ बंध गईं बांध में
तोड़ कर बह सकें, कसमसाती रही

शब्द जो भी उठा ले के अँगड़ाइयाँ 
व्याकरण की गली में भटक खो गया 
होंठ पर चढ़ न पाया सुरों में सजा
अश्रुओं में ढला, मौन ही तो गया 
कौन सारे गँवा एक रेखा बना
जो धराशायी होकर गिरी सामने
भावना कक्ष में बंद बैठी रही
आई बाहर नहीं, शब्द को थामने 

सरगमों की डगर निर्जनी ही रही
बीन तारीं को बस  फुसफुसाते रही 

छंद की हर लड़ी अब बिखर रह गई
बोल कर सजने में है कहाँ फ़ायदा
कोई पढ़ता समझता नहीं आज कल
क्या नियम हैं,कहाँ रह गया क़ायदा 
मात्राओं की गणना अधूरी रही
कोई। भी संतुलन पूर्ण हो न सका
गिट के नाम पर जो परोसा गया
काव्य के आकलन पर अधूरा रहा

लिखनी हाथ थोड़ी पे अपने रखे
पृष्ठ को देख कर बुदबुदाती रही 

अंतरे  सर्प की लुंडली से हुए
लोई भी तो सिरा न मिला टेक से 
क्रम तो टूटा शुरुआत से पूर्व ही 
शेष हो रएच गये गया वे ही अतिरेक थे 
मृत्तिका थी, कुशल शिल्प था पास में
चाक पर किंतु दीपक बना ही नहीं 
कातते पूनियाँ थक रटीं उँगलियाँ
बस्तियाँ एक भी तो संवारती नहीं

स्नेह में डूब कर रोशनी कर सके 
वर्तिका स्वप्न ले तिलमिलाती रही 

राकेश खंडेलवाल 
जुलाई २०२३ 



जुलाई २०२३ 



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