सपनों का अपराध नहीं है

 

अपनी झोली में बगिया के शब्द सुमन तो चुन न पाया 
लेकिन चाहा लिखा कथानक चर्चित हो, मंचित हो जाना 

सपनों का अपराध नहीं है जिन्हें आँजती आँखें दिन में 
दोषी है मन, महल बनाता रखकर नींवें बही हवा की 
आगत की मरीचिकाओं के भ्रम में डूबा बिखरा देता 
वर्त्तमान के मरुथल में जो छागल भरी हुई है आधी 

पहली सीढी पर पग रखने का विश्वास संजो ना पाया 
चाहे एक साथ ही पल में चार पांच मंज़िल चढ़ जाना 

चढ़ती हुई रात का हो या सपना उगती हुई भोर का
सपना तो अभियुक्त नहीं, वादी प्रतिवादी अवचेतन ही
आकांक्षाओं के व्यूहों में घिर कर रहता साँझ सकारे
औ यथार्थ के दर्पण में छवि देख नहीं पाता अपनी भी 

सीखा नहीं राह से गुज़रे हुए पंथियों के अनुभव से 
लेकिन चाहे जीवन पथ की हर उलझी गुत्थी सुलझाना 

चुटकी भर शब्दों की चाहत कोई विशद ग्रंथ हो जाना 
रहे व्याकरण से अनजाने संज्ञा क्या है और क्रिया क्या
क्या सम्भव है परिणति उनकी,किसने देखे नयन संजोए
जिन सपनों को कोई परिचय अपना भी मिल नहीं सका था 

सावन के मेघों से आते रहे नयन में उमड़ उमड़ कर
सपनों का अपराध नहीं है उनका छिन्न भिन्न हो जाना 

1 comment:

Sudha Devrani said...

सपनों का अपराध नहीं है जिन्हें आँजती आँखें दिन में
दोषी है मन, महल बनाता रखकर नींवें बही हवा की
बहुत ही सुन्दर सृजन।

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