असम्भव चल चुके इक तीर का

असंभव है कमानों पर चला फिर तीर चढ़ जाना 
नहीं संभव बही धाराओं का भी लौट  कर आना  

नियति ने कर दिया हमको खड़ा  उस मोड़ पर लाकर
जहाँ हमने बुनी   कच्चे रंगों से स्वप्न की चादर
कभी पूरबाइयों ने छेड़ दी थी जल तरंगी धुन
पंखूरियों को सुनाते थे तुहिन  कण गीत गा गाकर 

कहाँ सम्भव रहा पीछे उमर के पंथ पर जाना
बहुत बेचैन कर देता  वो  बिसरी  याद का आना 

अभावों की गली में छा गई थी होंठ पर चुप्पी 
झिझक ने खींच दी थी बीच में दीवार इक लम्बी
बँधे बरगद की शाखा पर क़सम के मख़मल धागे 
बनाते थे इरादों को हमारे जो  गगन चुम्बी 

फिसल  कर उँगलियों से छोर चूनर का निकल जाना 
बहुत मँहगा पड़ा हमको पुरानी  याद का आना 

घिरी संध्याओं में जब सुरमई  परछाइयाँ बिखरी 
हमारे ताजमहलों पर धवल थी चाँदनी सँवरी
परिस्थितियाँ बनी बाधाएं  अपनी दृष्टि के आगे 
हुई थी ज़िंदगी यायावरी , जब बाँध कर गठरी 

मचलता मन उमर के फिर उसी इक घाट पर नहाना
बजा सुधियों में सारंगी, वो भूली याद का आना 

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