रीतियाँ के अनुसरण में मंदिरो में सर झुकाया
यज्ञ कर कर देवता को आहुति हर दिन चढ़ाई
आर्चना के मंत्रस्वर में साथ भी देते रहा मैं
पर समूची साधना भी साथ पलभर को न। आइ
मैं व्यथा की इस कथा को भूल जाना चाहता हूँ
स्वर मिला स्वर में तुम्हारे गीत गाना चाहता हूँ
भोर की अँगड़ाइयों में पाखियों ने गीत गाए
साथ उनकी सरगमों का हर सुबह मैंने निभाया
मैं रहा वंचित सदा हर एक युग की करवटों पर
कॄष्ण का इतिहास पूरा व्यास के सुर में सुनाया
वाल्मीकी के रचे श्लोक में गुन्जित हुआ में
स्वर मिला स्वर में तुम्हारे अर्थ पाना चाहता हूँ
घाट पर वाराणसी के घुल गया तुलसी स्वरों में
इक कथानक छंद में चौपाई में मैंने सुनाया
सूर के स्वर में मिला इक तार के आरोंह चढ़कर
फिर उतर अवरोह में मैंने निरंतर गीत गाया
एक पल के भी लिए पर तुष्टि के क्षण मिल न पाए
स्वर मिला स्वर में तुम्हारे तृप्ति पाना चाहता हूँ
स्वर मिलाया था कभी दावानलो के तीक्षण स्वर से
और इक हुंकार से दिनकर अधर से जो उठी थी
तो कभी स्वर को मिलाया पार्थ सारथि के स्वरों से
सहज ही जिनसे प्रवाहित एक दिन गीता हुई थी
आज सब कुछ छोड़ पीछे, मौन की चादर लपेटे
स्वर मिला निस्तब्धता में मौन रहना चाहता हूँ
1 comment:
अद्भुत
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