आज हवा की पाती पढ़ कर लगी सुनाने है वे ही पल
जिनमें सम्बोधन करने में होंठ लगे अपने कँपने थे
शब्द उमड़ कर चले ह्रदय से किन्तु कंठ तक पहुँच न पाये
और नयन की झीलों में तिरते रह गये सभी सपने थे
अनायास ही वर्तमान पर गिरीं अवनिकायें अतीत की
और समय संजीवित होकर फ़िर आया आँखों के आगे
बिछे क्षितिज तक अँगनाई की राँगोली के रँग में डूबे
अलगनियों पर लटकी चूनर में से जैसे चित्र बिखर कर
छाप तर्जनी की जो उनमें कितनी बार हुई थी अंकित
उठ कर गिरती हुई दृष्टि की डोरी का इक सिरा पकड़ कर
खींच गये सतरंगी चादर निकल तूलिका के कोने से
जोड़े थे सायास साथ ने सम्बन्धों के कच्चे धागे
पाखुर का पीलापन पूछा करता पुस्तक के पन्नों से
बासन्ती स्पर्शों की सीमा कितनी दूर अभी
है
बाकी
कितनी देर तृषा की बाकी, और माँग में पुरबाई के
कब तक टीस भरेगी रह रह बेचारी सुधियों की साकी
दुहराने
लग गये स्वयं को शब्द उन्हीं कोरी कसमों के
करने जिन्हें प्रस्फ़ुटित रह रह स्वर अपने अधरों ने मांगे
‘संगे मरमर की जाली पर बँध कर रंगबिरंगे डोरे
सपने कोरे रखे हुये हैं कितने ही गुत्थी में बाँधे
चुनते चुनते थकी उंगलियों के पोरों पर टिकी हिनायें
आधी तो हो गई अपरिचित, रंग उड़े बाकी के आधे
चलते
हुये समय के रथ के चिह्न लगे हैं धूमिल होने
किन्तु शिला का लेख बने है बँधे हुये वे कच्चे तागे
No comments:
Post a Comment